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Wednesday, October 7, 2015

आखिर हम चुप क्यों रह जाते हैं



 7 अक्टूबर
इन दिनों देश में एक अजीब किस्म का सामाजिक परिवर्तन हो रहा है। समाजशास्त्र में अभी तक इस परिवर्तन को परिभाषित नहीं किया जा सका है। वह परिवर्तन है, प्रतिक्रियावादी और रूढ़िवादी ताकतों का संयुक्त उभार, साथ ही सम्प्रदायवाद और जातिवाद का पृथक्करण। इसके लिये हम दो स्थितियों पर चर्चा करेंगे, पहला गुजरात में हार्दिक पटेल का आंदोलन और दूसरा दादरी कांड। 90 के दशक में देश में मंडल और बाबरी कांड हुए थे, इन्हें भी जातिवादी और धर्मवादी सियासत के चौखटों में फिट कर दिया गया था। लेकिन उस वक्त दोनों दो काल खंड में हुये थे तब भी दोनों को स्पष्ट कारणों और दलीलों के आधार पर अलग- अलग बांट दिया गया था और दोनों से अलग अलग तरीके से निपटने की कोशिशें हुई थीं। आज घटना बेशक एक ही कालखंड में हुई है पर इन्हें भौगोलिक आधार पर पृथक मानने की सियासत हो रही है , जबकि दोनों एक ही​ स्थिति की उपज हैं, वह है समाज को रूढ़िवादी सांचे में ढालने के एजेंडे को कामयाब करने का प्रयास। दोनों घटनाओं का प्रतिफल देखें तो आसानी से कह सकते हैं कि हिंसा, भीड़ का हिंसक कृत्य है। राजनीतिज्ञों को छोड़ दें, आप खुद से पूछें कि आप हैं कौन? आपकी अलग पहचान क्या है? क्या आप वो भीड़ हैं जो किसी अकेले को निशाना बना कर मारती है। या सामाजिक सुविधाओं के लिए निर्मित ढांचों को जला डालती है। क्योंकि , भीड़ में आप खुद को ताकतवर महसूस करते हैं, जो अकेले में नहीं महसूस करते। आपके अंदर के जानवर को छूट मिल जाती है नफरत व क्रूरता का नंगा नाच नाचने के लिए। मन के किसी कोने में कोई छोटी सी आवाज आपको बताती है कि जो आप कर रहे हैं गलत है लेकिन भीड़ कुछ और कह रही है और इस भीड़ से अलग आप में हिम्मत नहीं है। आप शायद उन लोगों में से हैं जो आते- जाते सड़क पर किसी आवारा कुत्ते को लात मार कर संतुष्टि से मुस्करा लेते होंगे। आप सिर्फ और सिर्फ डर से बमुश्किल इंसान होने का ढोंग रचा रहे हैं। ध्यान दें कि , इस बार के आंदोलन में पटेल समुदाय की युवा पीढ़ी के लोग ज्यादा शामिल हैं। वे कहते हैं, "इन्हें शिक्षा तो मिलती है नौकरियां नहीं। सरकारी नौकरियां तो हैं ही नहीं। ये गुस्सा इनके मन में चला आ रहा था।" ये हालात तो आज से पहले भी थे पर इस तरह के गुस्से की अभिव्यक्ति नहीं दिखी। गुजरात में जाति प्रथा पहले से मौजूद है। "गुजरात में जाति प्रथा का हाल ये है कि अब भी 116 जगहों पर दलितों को प्रोटेक्शन मिला हुआ है।" ये आंदोलन वही चला रहे हैं जो सांप्रदायिक भी हैं। "आदिवासी विरोधी, महिला विरोधी, दलित विरोधी और अल्पसंख्यक विरोधी होना गुजरात के मध्यम वर्ग के बहुसंख्यकों का सोच है। जब 1985 का आंदोलन शुरू हुआ तो ये आरक्षण विरोधी था लेकिन बाद में अल्पसंख्यक विरोधी हो गया।"गुजरात में आम धारणा ये है कि राज्य सरकार ने हार्दिक पटेल की रैली का पर्दे के पीछे से पूरा साथ दिया। रैली की इजाजत दी गई जबकि यह जाहिर है गया था कि हिंसा भड़क सकती है। रैली के लिए दिए गए सरकारी मैदान का किराया नहीं लिया गया। ऐसा ही कुछ दादरी में हुआ। मंत्री ने प्रतिक्रिया जाहिर की , भीड़ का बचाव किया। यही नहीं एक तरफ सरकार बूचड़खाने खोलने के लिए लाइसेंस देती है और दूसरी तरफ इसी नाम पर लोग काट दिये जाते हैं। लेकिन क्यों, आम आदमी क्यों चुप रह जाता है? पता नहीं भीड़ के कारनामे को आप सही मानते हैं या गलत क्योंकि आप कुछ कहते नहीं तो किसी को पता नहीं। आप भी निश्चिंत हैं क्योंकि हर चीज का जवाब होगा आपके पास कि हमने तो कुछ कहा तक नहीं। यही तो बात है, कहा तक नहीं। सही मान रहे हैं तो भी डर, गलत मान रहे हैं तो भी डर। एक कदम आगे तो भी डर, एक कदम पीछे तो भी डर। ध्यान रखिएगा कहीं डर से ही किसी दिन जान ना चली जाए, वो जान जिसे इतना सहेज रहे हैं।

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध

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