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Monday, May 16, 2016

जम्हूरियत : जहां बंदे गिने जाते हैं तौले नहीं जाते

कैसी मशालें लेकर चले तीरगी में आप

जो रोशनी थी वह भी सलामत नहीं रही

संस्कृति उन्मुख समाज व्यवस्था की नीव पर हमारे देश में बने राजनीतिक समीकरणों ने बेशक लोकतंत्र का आधार तो फैला दिया पर उसके आदर्शों को लगतार समाप्त करता गय। यहां स्वार्थ के आधार पर दलों के गठबंधन होते हैं और उसमें बाधा आने के कारण टूट भी जाते हैं। यहां इकबाल के शब्दों में

जम्हूरियत वह तर्जे हुकूमत है

जहां बंदे गिने जाते हैं तौले नहीं जाते

और इसी गिनती के लोभ में अपने देश में हर बार चुनाव के वक्त नये नये समीकरण बन जाते हैं ततथा जब स्वर्थ का सिद्ध होना संदेहास्पद होने लगता है तो तनाव बढ़ने लगते हैं तथा आपस में तू तू मैं होने लगती है। अपने देश में राजनीतिक गठबंधन की उपयोगिता तब ही तक है जब तक उसके घटक दल यह साबित करते रहें कि सत्ता में कायम रहने के लिये उनका साथ् रहना जरूरी है। आरंभिक काल से जब से देश में राजनीतिक रेजिमेंटेशन की शुरुआत हुई लगभग तभी से दलों में विभाजन और नये दल का गठन भी शरू हो गया।

हम क्या बोलेंगे इस आंधी में कई घरौंदे टूट गये

इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जायेंगे

 दूर कहां जायेंगे, बिहार की ही देखें। कुछ महने पहले वहां लालू जी की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल और नीतीश जी की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) का गठबंधन हुआ। अब खबर आ रही है कि दोनों में तनाव बढ़ने लगे हैं। यह तनाव नीतियों को लेकर नहीं बस आपसी इगो को लेकर है।

फिर धीरे धीरे यहां का मौसम  बदलने लगा है

वतावरण सो रहा था अब आंख मलने लगा है  

हाल में किसी ने लालू जी से पूछा कि नीतीश जी जो जनता दरबार हर सोमवार को लगाते हैं उसके बारे में क्या ख्याल हैं, लालू जी ने कहा कि ‘बिना सरकारी दरबार के ही उनके पास लोग सुबह से शाम तक जुटे रहते हैं।’इतना ही हाल में जब नीतीश कुमार को जद यू का अध्यक्ष चुना गया तो सबने कहा कि नीतीश कुमार प्रधनमंत्री पद के लिये गठबंधन के सर्वमान्य उम्मीदवार हैं। लेकिन लालू जी ने कहा कि हम राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन तैयार करने में जुटे हैं नेता कौन होगा यह बाद में देख लेंगे। यहां यह बता देना जरूरी है कि चारा घेटाले में सजा के बाद लालू जी अगले लोकसभा चुनाव तक निर्वाचन में नहीं भाग ले सकते हैं। यह तो तय है कि राष्ट्रीय स्तर पर अभी मोदी जी के मुकाबले विपक्ष के पास नेता का अभाव है।

​जिंदगानी का कोई मकसद नहीं

एक भी कद आज आदमकद नहीं

ले दे कर राहुल गांधी दिखते हैं और इस मामले में उनकी योग्यता क्या है यह सब जानते हैं। एसे नेताशून्य स्थिति में क्षेत्रीय नेता भी अगर केंद्र में नेतृत्व का सपना देखने लगे तो क्या आश्चर्य है। मुलायम सिंह यादव ने भले ही अपने पुत्र अखिलेश यादव के लिये कुर्सी छोड़ दी है पर यदि नेंद्र में अवसर की गुंजायश होगी तो वे चूकेंगे नहीं। यही हाल हर जगह है।

नजर नवाज नजारा बदल जाये ना कहीं

जरा सी बात है मुंह से निकल जाये ना कहीं

ऐसे में हमें इतिहास से थोड़ी सीख लेनी होगी। याद होगा कि 1970 में कांग्रेस के विरुद्ध सभी दल एक जुट हुये थे और ऐसा ही 1980 में वी पी सिंह के नेतृत्व में हुआ था। लेकिन फेल हो गया। ऐसा नहीं कि जनता ने उनपर भरोसा नहीं किया। दोनों बार यानी 1977 और 1989 में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं पर उनकी उम्र ज्यादा लम्बी ना रही। कारण था कि वे कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के लिये आपसी अहं का समायोजन नहीं कर पाये और बिखर गये। अभी जो भाजपाह विरोधी गोल बंदिया हो रहीं हैं उनके लिये भी जरूरी है कि वे यान​ घटक दल आपस में एक दूसरे को यह समझायें कि सत्ता में बने रहने के लिये अहं का कम से कम होना जरूरी है। वरना राजनीतिक अहं की बाढ़ में सारे दल तिनके की तरह बह जायेंगे।

गजब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते

सब के सब परीशां हैं कि वहां पर क्या हुआ होगा

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