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Wednesday, May 25, 2016

नये राजनीतिक संक्रमण की ओर बढ़ता देश

विख्यात दार्शनिक लुई अलथसर ने कहा था कि ‘राजनीति एक लम्बी लड़ाई है , हालातों के प्रति दूरदृष्टि रखनी चाहिये और इंतजार करना सीखना चाहिये, आनन फानन में कोई कदम उठाना गलत होता है और हर राजनीतिक दल को अपनी पराजयों से सीखना होता है।’ चुनाव के नतीजे आ गये और परा​जित पार्टियों के आत्ममंथन के बाद फिर से विजयी पार्टियों को जबरदस्त टक्कर देने के लिये संयुक्त मोर्चा बनाने पर ​फिर से बहस शुरू हो गयी है। लेकिन भारत की ताजा स्थिति के मद्देनजर इस तरह के मोर्चे क्या व्यावहारिक हैं? अभी इसी चुनाव में वाम मोर्चा का कांग्रेस के साथ गठबंधन बुरी तरह फेल कर गया। दरअसल , संयुक्त मोर्चा का यह रिवाज उतना ही पुराना है जितना पुराना कम्युनिज्म का आइडिया है। इतिहास के अनुसार कमिनटर्न के चौथे विश्व कांग्रेस में सबसे पहले अन्य पार्टियों के कामगारों को जोड़ कर बुर्जआ वर्ग को टक्कर देने का प्रस्ताव किया गया था। यह लगभ्पग सौ वर्ष पुरानी बात है। तबसे हालात बहुत बदल गये। कई युद्ध हुये , कई राजनीतिक क्रांतियां हुईं , कई चुनावों में नये नये समीकरण बनाये गये। हर बार आइडियोलॉजी का व्यापक मंथन हुआ। कम्युनिस्ट पार्टियों में भी ढेर सारे बदलाव आये। ये बदलाव काल स्थन और देश के अनुरूप अलग अलग चरित्र मे ढल गये। भारत में इसका नाम चुनावी गठबंधन हुआ। बंगाल में भी इसी तरह का गठबंधन हुआ। दो धुर विरोधियों ने एक ममता बनर्जी को पराजित करने की गरज से हाथ मिला लिये। शुरू में तो लगा कि सबकुछ लुट पिट जायेगा लेकिन परिणाम कुछ दूसरा ही हुआ। इसके दो ही कारण हो सकते हैं पहला कि मतदाताओं को इनकी विश्वसनीयता पर संदेह हो गया या वे यही मानकर चले कि एक ही पार्टी को सत्ता चलाने दिया जाय। अब यहीं से अगर आप पृष्ठघ्वलोकन करते हैं तो पता चलेगा कि गठबंधन की सियासत बहुत कारगर तभी होती है जब विश्वसनीयता का गुणक ठीक हो। सन 2011 में ममता जीने कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था और मुकाबले में वाम मोर्चा थी। उस बार ममता जी को जो वोट मिले थे उससे कहीं ज्यादा इस बार मिले और कांग्रेस – वाममोर्चा गठबंधन का इसबार क्या हुआ यह सब जानते हैं। इसका मतलब्ग साफ है कि अब मतदाताओं को यह भरोसा दिलाना कठिन है कि दो धुर विरोधी लोग शांति से रहेंगे और शासन सही चलेगा। चुनाव के पहले इस गठबंधन ने क्या नहीं किया। शारदा घोटाले का बवंडर उठाया गय, स्टिंग आपरेशन का मामला शुरू हुआ , फ्लाईओवर गिरा और ना जाने क्या क्या हुआ। लगा कि तृणमूल में सब बेईमान ही हैं पर तनीजा क्या हुआ, यह सबने देखा। ममता जी ने विजय का शंख फूंक दिया। इसका मुख्य कारण था कि दोनो विरोधी दल उस राजनीतिक  ढांचे का पुननिर्माण नहीं कर सके जिसे विगत पांच सालों में तृणमूल ने नेस्तनाबूद कर दिया था। चुनाव आयोग की हर कोशिश के बावजूद गठबंधन के नेता और कार्यकर्त्ता तृणमूली बहुबलियों से आतंकित दिखे। हालांकि तृणमूल की ओर से किसी तरह की ऐसी कोशिश नहीं हुई जिससे लगे कि वे आतंक बरपा करना चाहते हैं। कल्बों और अन्य क्रीड़ा संस्थाओं को अनुदान दिये जाने की ममता जी की कोशिशों की खुल कर आलोचना हुई लेकिन इसपर किसी ने कुछ नहीं कहा कि कम्यीनिस्ट जो लोकल कमिटियों के जरिये करते थे वैसा ही कुछ क्लबों को अनुदान देकर करने की कोशिश की गयी। वाम मोर्चा कांग्रेस गठबंधन की सफलता के बारे में जिन लोगों ने भी संभावनाएं जाहिर की थीं उनका आकलन गणीतीय था और वह 2014 के संसदीय चुनाव के नतीजों पर आधारित था। इस चुनाव में वाम मोर्चा, कांग्रेस और तृणमूल ने अलग- अलग चुनाव लड़े थे और उस चुनाव में तृणमूल को अकेले 39.7 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि कांग्रेस और वाम मोर्चा को 39.6 प्रतिशत और भाजपा को 16.9 प्रतिशत वोट हासिल हुये थे। इसमें उम्मीद यह थी कि भाजपा के प्रति कुछ मतदाता वर्ग का मोहभंग हुआ है और उनके वोट गठबंधन को मिलेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सारे वोट तृणमूल कांग्रेस को चले गये। क्योंकि उसमें मतदाताओं को ज्यादा सुरक्षा महसूस हुई। ममता जी की लगातार आलोचना से मतदाताओं में यह संदेश गया कि ममता विरोध के अलावा इनके पास कुछ नहीं है। यही हालत देश भर में थी। अब तक असहिष्णुता के विरुद्ध जितने  आंदोलन हुये सब के सब में कम्युनिस्ट पार्टी खास कर सीपीआई (एम) अगुआ थीं। उधर कांग्रेस मौन रही। अब इस ताजा स्थिति में कम्युनिस्ट पार्टियों में आत्ममंथन का होना लाजिमी है।गठबंधन के पहले कई विश्लेषकों ने चेताया कि वह बुर्जुआ दलों का पिछलग्गू ना बने। लेकिन यह बात अनसुनी कर दी गयी।वाममोर्चा देश भर में कमजोर होती जा रही है। यह इसके बुनियादी और गंबीर हालत की ओर इशारा कर रही है , उससे इसे उबरना होगा नहीं तो तेजी से बदलते राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में उसकी हालत सोचनीय हो जयेगी। वोट के लिये पार्टी ने कुछ साल   पहले अपनी नीतियों में परिवर्तन किया और धर्म मानने वालों के लिये भी दरवाजा खेल दिया। एक तरफ यह द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की वकालत करता है दूसरी तरफ पराभौतिकवादियों के लिये दरवाजे खोलता है। माकपा या पूरे वाम पंथी गुटों इस पर सोचना चाहिये। देश में जो हालात दिख रहे हैं उससे लगता है कि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष शून्यता की स्थिति आने वाली है या क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका निभायेंगे। देश एक नये रनितिक संक्रमण की ओर बढ़ रहा है।

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