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Friday, May 6, 2016

‘आज सबसे अधिक खतरा वहां है,जो निरापद स्थान था’

कई दिनों से अखबारों में खबर आ रही है कि उत्तराखंड के जंगलों में आग लगी है। वन सम्पदा का विनाश हो रहा है और सरकार लाचार है। वन सम्पदा का विनाश खुद में एक नये विनाश की बानगी है। अगर कहा जाय कि इस विनाश के लिये हम खुद जिम्मेदार हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वनों के बहारे में या प्रकृति से हम इतने दूर होते जा रहे हैं कि प्राकृतिक आपदा जुड़े शब्द भी हमें याद नहीं आते और हमारे बच्चों को उन शब्दों को पढ़ाया नहीं जाता। हम भूल गये  और हमारे बच्चे जानते भी नहीं होंगे कि वन की आग को ‘दावानल’ कहते हैं।

प्रकाशित खबरों के मुताबिक ‘उत्तराखंड के अपर मुख्य सचिव एस रामास्वामी ने कहा कि 3 मई को आग लगने की 121 घटनाएं हुई हैं। 95 को काबू कर लिया गया है। इस वक्त सक्रिय आग की संख्या 26 बताई जा रही है। सोमवार को यह संख्या 40 थी। रविवार को 70। इससे संकेत मिल रहा है कि आग के बड़े हिस्से पर नियंत्रण पा लिया गया है। इसके लिए राज्य के 11,160 कर्मचारियों को काम में लगाया गया है। राष्ट्रीय और राज्य आपदा प्रबंधन बल के लोग भी काम में जुटे हैं। एमआई-17 हेलिकाप्टर ने नैनिताल और पौड़ी में 16 उड़ानें भरी हैं। चार लोगों की मौत हो चुकी है और 16 घायल बताये जा रहे हैं। अभी तक वनाग्नि की 1591 घटनाएं दर्ज हो चुकी हैं। जानबूझ कर आग लगाने के 46 मामले दर्ज किये गए हैं। वही हाल हिमाचल प्रदेश का है। वहां के 12 में से 8 ज़िलों में दावानल फैल चुका है। एक महीने से सूबे में आग की घटनाएं दर्ज हो रही हैं। आग पिछले साल भी लगी थी। हर साल लगती है। इस बार ज्यादा बड़े पैमाने पर लगी है लेकिन हम ऐसे जागे हैं जैसे पहली बार लगी हो। पर्यावरण से लेकर जंगलों का जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई इतनी आसानी और जल्दी तो नहीं होने वाली।’ अभी उत्तरा खंड के दावानल के बारे में सबसे ज्यादा जो बात कही लिखी जा रही है वह है कि यह आग ‘मैन मेड या मानव निर्मित है।’ अमर्त्य सेन ने हाल में न्यूयार्क टाइम्स में इस सम्बंध में लम्बा लेख लिखा है। उन्होने इस आग के लिये मनुष्यों को जिम्मेदार कहते हैं। वे भी इसे ‘मैन मेड’ करार देते हैं।  भारी भरकम शब्दों को जोड़कर जिम्मेदारियों को उनकी दीवार के ओट में छिपा देने की यह एक बड़ी साजिश है। ‘मानव निर्मित’ शब्द का कोई चेहरा नहीं होता और यदि होता है तो उन चेहरों में एक चेहरा व्यवस्था का भी होता है , एक चेहरा सरकार का भी होता है।एक तीसरे प्रकार के भी लोग होते हैं जिनका चेहरा इस 'मानव निर्मित या मैन मेड' की शब्दावली से नहीं झलकता। वो हैं आम लोग। जिनका जंगलों से अपनापा रहता है  एक खास नाता रहता है। जैसा नाता मां से या बेटे- बेटियों रहता है।  जो जंगलों से जीते हैं और जीने के लिए जंगलों को बचाते हैं। 'मैन मेड क्राइसिस या मानव निर्मित संकट' जैसे संबोधनों से पता नहीं चलता कि ये आम लोग खुद जंगलों से दूर हो गए या सरकार के बनाए कानूनों ने उन्हें वहां से  दूर कर दिया, खदेड़ दिया।

 

 जिन्होंने वन नहीं देखे वे इन्हें रोता नहीं महसूस कर पायेंगे। उत्तरा खंड में जो हो रहायह तो जलते हुए वन का रूदन है। वृक्षों की खाल जल रही है, आंसुओं का धुआं पर्वतों के शिखर को छू गया है। ये जंगल कैसे रोते हैं?दुःख भी तो आखिर थक ही जाता है। यह कैसे दरख्त हैं, जो हर साल जार-जा रोते हैं।
दुष्यंत कुमार कहते हैं...
"इधर और झुक गया है आकाश, एक जले हुए वन में बसंत आ गया है...
मेरी नियति रही होगी, शायद भाग्य में लिखी थी, एक जंगल की आग..."

पर यह वसंत नहीं है, बैशाख है। सावन अभी दूर है। जलगर्भित मेघों का समय-पूर्व प्रसव हो, तो बात बने। ये आग आदमी के वश में कैसे आए। यह तो वनों की क्रोधाग्नि है। वन हमसे नाराज हैं। वन जल उठे हैं, जले ही जा रहे हैं। ये जंगल क्यों जल रहे हैं, यह दावानल क्यों? इसलिये कि वहां का आम आदमी जंगल की आग को बुझाने की तरकीब भूल गया। बिहार का अभिशाप कही जाने वाली नदी  कोसी में कुछ दिन पहले बाढ़ आई थी। कितने लोग डूब कर मर गए थे याद है?

क्यों मरे थे? क्यों डूब गया था तैरने वाला समाज? इसलिये कि कोसी सूख गयी थी और अर्से से सूखी थी और वहां के लोग तैरना भूल गए थे। जिन्होंने बचपन में लोककथाएं सुनी होगी उन्हें शायद याद हो कि कोसी के हर किस्से में नाव और तैरने वालों का जिक्र मिलता है। जिन लोगों ने उत्तराखंड की आग की तस्वीर देखी है उन्होंने शायद ध्यान नहीं दिया कि  तस्वीर खुद बता रही है कि उत्तराखंड आग बुझाने की अपनी ही तरकीब भूल गया। जिन्होंने पहाड़ देखे होंगे उन्होंने वहां तलैया भी देखी होगी, छोटी – छोटी बेनाम उछलती कूदती नदियों को देखा होगा। अब वे नहीं हैं। अब हम और हमारी सरकार आग बुझाने के लिये फौजी हेलीकाप्टरो पर निर्भर है। ये फौजी लोगों को बचाने में जान लड़ा देते हैं। पर क्या लोग बचते हैं?बद्रीनाथ के जलजले में या चन्नई की बाढ़ में भी तो कोशिशें हुईं थीं।

"कितनी अजीब बात है...
कि मैं जिनकी कल्पना किए था,
वे दुर्घटनाएं,
घट कर सच हो रही हैं...
वे जो बचाव के बहाने थे,
तनाव का कारण बन गए हैं,
आज सबसे अधिक खतरा वहां है,
जो निरापद स्थान था..."
बद्रीनाथ के पहाड़ों को काट कर या चेन्नई के पोखरों का पाट कर हमने शहर का विस्तार शुरू किया। उत्तराखंड में भी तलैयों को पाट कर कुछ ऐसा ही हो रहा है। अब वहां की आग को बुझाने के लिये हेलीकाप्टर उड़ रहे हैं। इससे हमारे इगो को एक वीरोचित भाव मिल रहा है कि मनुष्य अपने समय की आपदा से जूझ सकता है। लेकिन यह जानबूझ कर नजरअंदाज कर देते हैं कि वे हेलीकप्टर पानी कहां से उठाते हैं? जैसा कि खबरों में देखा गया कि भीमताल से पानी लाया जा रहा है। क्या हुये स्थानीय पोखर सब? पर यह नयी बात नहीं है। वन तो आदिम काल से मानव के स्वार्थ के शिकार होते रहे हैं और उसने मानव से इसका बदला लेने का भी प्रयास किया है।  कहा जाता है कि हस्तिनापुर से बंटकर पांडवों ने जो इंद्रप्रस्थ बनाया, वह भी खाण्डव वन को जलाकर बनाया था। किसी अश्वसेन नाम के सर्प का परिवार उस दावानल में जल मरा था, जो प्रतिशोध को उद्धत था। अर्जुन को दण्डित करने के प्रयोजन से वह कर्ण के धनुष में छिप गया। कर्ण ने उसके सहयोग को नकार दिया। वह रश्मिरथी था। 'कुटिल' कहकर उसे धिक्कार दिया -

"...रे कुटिल, बात क्या कहता है,
जय का समस्त साधन नर का अपनी बांहों में रहता है..."
यहां कहने का अर्थ यह है कि जबतक अपने पुरुषार्थ पर हमारा अपना हक नहीं होगा तब तक हम कभी भी सुरक्षित नहीं रह सकेंगे। जंगलों के साथ भी यही है,जंगलों पर लोगों का हक होना चाहिये। जब तक लोगों का जंगलों पर अधिकार नहीं होगा तब तक वे जंगल को अपना क्यों समझेंगे। कई बार कानून से उन्हें वंचित किया गया है और कई बार कानून के नाम पर फंसा दिये जाने के कारण लोग इन जंगलों से जैविक संबंध नहीं बना पाते हैं। वहां के लोगों के लिए भी जंगल उतने ही पराये हैं जितने कोलकाता में बैठे हमारे और आपके लिये। सोचना पड़ेगा कि जो समाज सदियों से जंगल के साथ जी रहा था वो इतना अनजान कैसे हो गया। ये दूरियां आज की नहीं हैं, ये भी दशकों से हमने बनाई हैं।

मेरे कितने आंसू और कितनी आहें खर्च हो गयीं

मैं कुछ नहीं कहता, पर मेरी मृत्यु के बाद

तू मेरी कविता पढ़ेगी

आकाश से पूछेगी ‘उसने मुझे प्यार किया था ’

एक बूद तेरी आंखों में अटक जायेगी

एक आह तेरे होठों पर जम जायेगी

एक लोकगीत भी है।

‘यूं बांजा -बुरासां रक्खा जगवाली,

 यूं का पत्तियों मां दूध, जड़ों मा पानी। ’

यानी ,  बांज –बुरांस (स्थानीय वनस्पतियां ) की रखवाली करो , क्योंकि इनकी जड़ों में पानी है और पत्तियों में दूध है। अब हम पानी कहीं और से उड़ा कर या बोतलों में भर कर ला रहे हैं। आग तो लगेगी ही जंगल में। बस एक ही प्रार्थना है दुष्यंत कुमार के शब्दों में

आग चीड़ों तक ना पहुंचे

जल्दी आओ आषाढ़

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