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Saturday, June 11, 2016

आनेवाले  दिनों में बढ़ेगी व्यापक बेरोजगारी

हमारे देश में मूलभूत आमदनी ही खुश हाली का मानदंड है/ सरकारें भी प्रति
व्यक्ति आय के आधार  पर ही योजनायें तैयार करती हैं/  लेकिन अगर गम्भीरता
से सोचें तो लगेगा की यह धारणा  गलत है और विनाशक भी/ इस योजना से भविष्य
में सामाजिक विपर्यय का भी खतरा है/  समाज में प्रति व्यक्ति आय से
ज्यादा महत्वपूर्ण रोजगार है/ किस समाज में कितने लोग रोजगारशुदा हैं/
रोजगार ही महत्वपूर्ण है जहाँ से व्यय की ताकत पैदा होती है/ रोजगार पर
ही लोगों के जीने का अर्थ , जीवन की पहचान और  अस्तित्व का गठन निर्भर
करता है/ लेकिन हालात ये हैं की रोजगार का दायरा सिकुड़ता जा रहा है/
चाणक्य का कथन था की रोटी महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि यह जरूरी है की कितनी
इज्ज़त के साथ वह रोटी मिल रही है/ देश में आर्थिक उदारीकरण के बाद से हुए
विकास के बाद रोजगार के आधार सिकुड़ने लगे/ इस बात का इतिहास गवाह है की
जब जब रोजगार के आधार सिकुड़े हैं तब तब सामाजिक विपर्यय हुआ है/ चाहे वह
नमक सत्याग्रह हो या भारत की आजादी की जंग या नक्सली आन्दोलन हो या मीलों
की हड़ताल / अपने देश में ही नहीं, विदेशों में भी फ्रांसिसी विद्रोह हो
या नवम्बर क्रांति, या वाल स्ट्रीट दखल हो या अरब वसंत, सबके मूल में
रोजगार या इज्जत से रोटी हासिल करने की चाह थी/ लेकिन जबसे उदारीकरण हुआ
है तबसे दुनिया में हर जगह राजगार के अवसर घटने लगे हैं अथवा वेतन का
बढना रुक गया है/ यही नहीं सरकार के लाख़ आश्वासन के बावजूद अपने देश में
और व्यापक रूप में कहें तो विदेशों में भी रोजगार को खत्म होने का
बुनियादी भय पैदा हो रहा है/ नयी तकनीक , मशीनों से ट्रेनिंग, चालक विहीन
मोटर कार जैसे विकासों से रोजगार खत्म होने का आतंक फैल रहा है , जिससे
भारी असंतोष जनम ले रहा है/ दुनिया के अर्थशास्त्री सलाह दे रहे हैं कि
व्यापक सामाजिक पेंशन चालू किये जायं/ चाहे वह अकेला हो या वेतन के पूरक
के तौर पर हो/ दो दिन पहले स्विट्जरर्लैंड में लोगों ने बुनियादी आय की
नीति अपनाने के लिए सरकार पर पर दबाव बनाने के उद्देश्य से जनमत संग्रह
किया था और उसमें  इस मांग के पक्ष में बहुमत मिला था/ फिन लैंड और
नीदरलैंड में भी सरकार एक सिमित दायरे में नागरिकों को मासिक भत्ता देने
की योजना बना रही है/ ट्रेड यूनियन और अर्थशास्त्री भी समर्थक हैं/ अभी
तो यह एक विचार है पर बुनियादी आय आज नहीं कल एक सच्चाई बनाने वाला है/
अभी तक तकनिकी विकास से रोजगार खत्म होने का भय निराधार साबित हुआ है/ जब
खेती सिकुड़ने लगी , शहर फैलने लगे और कृषि कार्य समाप्त होने लगा तो
निर्माण क्षेत में या कल कारखानों में रोजगार पैदा होने लगे/ लेकिन आज
रोबोट और बनावती मेधा आने वाले दिनों में भरी आतंक के रूप में सामने आने
वाला है/ हाल में टाइम पत्रिका ने एक सर्वे के निष्कर्ष में लिखा है कि
आने वाले दो दशकों में दुनिया में  47 प्रतिशत रोजगार खत्म हो जायेंगे/
या कहा जा सकता है कि एक दिन ऐसा आयेगा जब कई काम मशीनों से ही ही जाया
करेगा/ लेकिन यह कारन नहीं है कि सरकारें ताबड़ तोड़ बुनियादी आय नीति को
तत्काल लागू कर दे/ अगर बुनियादी आय की जरूरतों को नकारा जाएगा, भविष्य
में ही सही, तो वक्त की सरकारों को उसकी कीमत चुकानी ही पड़ेगी/ यह केवल
एक देश की समस्या नहीं होगी बल्कि पूरी दुनिया की समस्या होगी/ चूँकि यह
समस्या विश्वव्यापी होगी इसलिए बुनियादी आय को बुनियादी अधिकार के रूप
में स्वीकार करने के लिए सरकारों को मजबूर कर देगी/ लेकिन यह अर्थ
व्यवस्था पर एक बोझ के रूप भी होगी/ भारत जैसे देश में जहाँ का सकल
घरेलू उत्पाद बमुश्किल दहाई तक पहुंचता है वहाँ अगार उसके बराबर भी टैक्स
वसूला जय तब भी शायद ही बात बने/ साथ ही सारे कल्याण करी कार्यों को
रोकना होगा और इससे सामाजिक सुरक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र भी
प्रभावित होंगे/ अगर टैक्स जरूरत से ज्यादा बढ़ा तो उसके व्यापक प्रभाव
पड़ेंगे/ खास कर संपदा सृजन के काम में तथा गरीब तबके के लोगों को काफी
मुश्किलें उठानी पड़ेंगी/ गरीब संकट में पड़ेंगे और अमीर लोग सरकार से
बेवजह भुगतान पायेंगे/ सबके लिए बुनियादी आय के चलन से कल्याण कारी राज्य
की अवधारणा भी खत्म हो जाएगी/ इन बुराइयों के बावजूद अग़र बेकारी बढ़ेगी तो
कितनी अराजक स्थिति होगी/ समाज में तनाव बहुत ज्यादा बढ़ जाएगा/ जो लोग
काम करते हैं और टैक्स देते हैं और जो अमीर हैं उनके बीच तननव बहुत बढ़
जाएगा/  यही नहीं बुनियादी भुगतान के कारण एक देश से दूसरे देश में जाकर
काम करने वालों के सामने संकट आ जाएगा/ श्रमिक कानूनों में सुधार करना
होगा जिससे रोजगार बढ़े/ लेकिन बेरोजगारों के एक समाज के बारे में सोचने
के पहले सरकार को यह सोचना जरूरी है कि वर्तमान व्यवस्था कैसे ठीक से काम
करे, क्योकि वर्तमान ही भविष्य की डोर है/

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