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Tuesday, July 5, 2016

1971 के जिन्न से मुक्त नहीं हुआ बंगलादेश

भयंकर खून खराबे और अमानुषिक अत्याचार को झेल कर पाकिस्तानी शिंकजे से बंगलादेश 1971 में मुक्त हुआ। उस समय बंगलादेश की ज्वपदा यह थी कि वहां दो गिरोह थे एक मुक्तिविरोधी और दूसरी मुक्तिकामी। वहां जांछ भी हुआ उसके लिये केवल पाकिस्तानी फौज ही नहीं ब्रलक वहां का मुक्तिविरोधी गुट भी जिम्मेदार था और आज भी उस विरोधी गुट का जिन्न सक्रिय है। शनिवार को प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद ने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहा कि ‘शुक्रवार की घटना के लिये विदेशी ताकतें जिम्मेदार हैं। उन्होने देशवासियों को आश्वासन दिया कि आतंकवाद का खात्मा किया जायेगा।’ यह एक सियासी भाषण था। यकीनन शेख साहिबा भी जानती हैं कि ये क​थित विदेशी ताकतें और कुछ नहीं उनके ही देश के लोगों ने गढ़ी हैं। विदेश के किसी भी देश से आकर कोई आतंकी तबतक कामयाब नहीं हो सकता जबतक देश में उसे मदद ना मिले। 1971 के मुक्ति संग्राम में , सरकारी सूत्रों के अनुसार, पाकिस्तानी फौजियों और उनके बंगलादेशी मददगारों द्वारा लगभग 30 लाख लोग मारे गये थे और करीब दो लाख महिलाओं से बलात्कार किया गया था। गर्भवती महिलाओं के पेट संगीनों से फाड़ कर बच्चे निकाले गये और छोटे बच्चों को दौड़ाकर टार्गेट प्रैक्टिस की गहयी। यह कोई काल्पनिक कथा नहीं है ब्रल्क हकीकत है।  ये आंकड़े बाद में निष्पक्ष गवेषकों द्वारा भी स्वीकार किये गये थे। यह हिटलर द्वारा यहूदियों के नरमेध से बड़ी घटना थी। जान बचाने के लिये लगभग एक करोड़  लोग भारत आ गये । यह घटना इतनी मर्मांतक थी कि पाकिस्तानी सेना का एक जनरल अब्दुल सालिक ने यह सब देख कर अपनी नौकरी छोड़ दी और हकीकत का बयान करते हुये कई लेख लिखे। अब जो बंगलादेश में हो रहा है वह उसी मु्क्तिविरोधी गुटों की करतूत है उसपर आई एस का मुखौटा लगा है। स्वतंत्र ब्लागरों, प्रोफेसरों , धार्मिक व्यक्तियों और इसी सूत्र में जोड़ते हुये ढाका के रेस्तरां पर हमले में एक बात कॉमन है वह कि जो मुक्तकामी हैं और जिन्होंने ऐसी ख्वाहिशे जाहिर की हैं वे ही हमले के शिकार हुये हैं। इन दिनों यानी जबसे अवामी लीग की सरकार बनी उस समय से जो कुछ भी हो रहा है उसे समझने के ​लिये पहले वहां के हालात समझने जरूरी हैं। अबतक तो हम उस जमीन की बात कर रहे थे जिसपर धार्मिक उग्रवाद के नाम पर एक खास किस्म की हत्यारी मानसिकता पनपी है। अब गे इस मानसिकता को बड़ावा देने वाले कुछ ऐसे लोग और समूह हैं जो खुद को बेहद चिंतनशील मानते हैं। बात यहां से शुरू होती है कि वर्तमान प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद की सरकार ने 1971 की घ्टानाओं के अपराधियों के जुर्म पर विचार करने के लिये 2009 में अंतरराष्ट्रीय अपराध ट्राइब्यूनल (आई सी टी )का गठन किया और आई सी टी के फैले पर जयत- ए – इस्लामी के कई बड़े नेताओं को फांसी दे दी गयी जिनमें, सलाउद्दीन कादिर चौधरी, मोहम्मद कमरुज्जमां, मोतिउर्रहमान चौधरी, गुलाम आजम खान , निजामी जैसे कट्टरपंथी नेताओं को फांसी दे दी गयी। पश्चिमी राष्ट्रों ने फांसी का तीव्र विरोध किया। भारत जैसे देश में भी एक गुट फांसी का विरोधी है जबकि सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि ‘फांसी की सजा विरलतम (रेयरेस्ट ऑफ द रेयर)मामलों में दी जाय।’ ह्यूमन राइट वाच ने बंगलादेश में आए सी टी द्वारा दी गयी फांसियों का विरोध लगातार विरोध किया है। अब उन्हें यह कौन बताये कि बंगलादेश या भारत या सम्पूर्ण दक्षिण ए​शिया वह नहीं है जो पश्चिमी यूरोप है। बंगलादेश मुक्तिसंग्राम का इतिहास जिन्होंने पढ़ा है वे जानते हैं कि जिन्हें फांसी दी गयी है उनका अपराध ‘विरलतम से भी विरल’ है। कई मानवाधिकार संगठनों ने भी वहां फांसी का विरोध किया। इस क्रिया ने वहां के मुक्तिविरोधी समूहों को आतंकवादी ताकतों से जुड़ने के लिये प्रोत्साहित किया। यहां दो बातों का विश्लेषण जरूरी है। जिन्हें फांसी दी जा रही है उनके मानवाधिकार की रक्षा की बात चल रही है और जिनपर इन लोगों ने जुल्म किये उनका क्या मानवाधिकार नहीं था। इस बारे में कोई नहीं बोलता। 1971 में आजादी के बाद जब शेख मुजीब की सरकार बनी तो धार्मिक समुदाओं पर बंदिशें लगा दी गयी लिहाजा 15 अगस्त 1975 को मुजीब की सपरिवार हत्या कर दी गयी। वर्तमान प्रधानमंत्री शेख हसीना मुजीब की पुत्री हैं और वे सौभाग्यवश बच गयीं। गौर करें उस हत्या का दिन 15 अगस्त था जो भारत की आजादी का दिन है। चूंकि भारत की मदद से यह हुआ था इसलिये उसे यह संकेत दिया गया। इसके बाद जियाउर्रहमान राष्ट्रपति बने और उन्होंने ही यबिज बोया जो आज विषवृक्ष बन गया है। हालांकि 1981  में जिया की भी हत्या हो गयी।  शेख हसीना 2004 में एक हमले से बाल बाल बचीं। ले​​किन जिया के जमाने में उनकी पार्टी बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमात की मिलीजुली सरकार वहां की स्थिति को बिगाड़ दिया। अब वहां फिर हत्याओं का दौर आरंभ हुआ है। यहां एक बात उल्लेखनीय है कि निजामी की हत्या के बाद पाकिस्तान में सरकार ने शोक मनाया, वहां नमाजें हुईं। एक बर्बर हत्यारे के लिये भारत के पड़ोसी देश में इतनी ममता आखिर क्यों? प्रधानमंत्री शेख हसीना ने शनिवार को राष्ट्र के नाम अपने संदेश में आई एस का नाम नहीं लिया इसका कुछ क्षेत्रों में मलाल है पर उनका यह कदम जायज और सुचिन्तित है। इससे आई एस को ना केवल प्रचार मिलता बल्कि उसे प्रोत्साहन भी मिलता। 1971 का यह जिन्न जल्दी नहीं खत्म होगा।  आज नहीं कल बंगलादेश में फिर खून खराबा होगा और भारत अछूता नहीं रहेगा। भारत को ना केवल सतर्क हो जाना चाहिये बल्कि इस सिलसिले में बंगलादेश को नैतिक समर्थन भी देना चाहिये। साथ ही वहां के सियासी जमातों को भी कट्टर पंथ से अलग देश के भविष्य को सोचना चाहिये।

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