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Friday, August 5, 2016

भारत-पाक में भरोसा उठ चुका है, कुछ भी हो सकता है

दो देशों के रिश्तों में मुहब्बत तो हो नहीं सकती क्योंकि यह मुहब्बत या दोस्ती एक उत्पाद है उत्पत्ति नहीं। इन दिनों तो एक नया जुमला गढ़ लिया गया है कि ‘दो देशों के बीच ना स्थाई दोस्ती होती है और ना स्थाई दुश्मनी, एक चीज स्थाई होती है वह राष्ट्रहित।’ दो राष्ट्रों में हितों के स्थाइत्व और प्राथमिकता का आकलन कुछ  इस तरह से हाता है कि सीमा पर या सीमा से दूर किस दिश से हमारा मतलब कितना है और किस स्तर तक वह पूरा होता है।एक और कहावत है कि आ अपने पड़ोसी का चुनाव नहीं कर सकते हैं। लेकि यह भी सच है कि पड़ोसियों से सम्बंध अच्छे रखने चाहिये और इसके लिये सद्प्रयास किये जाने चाहिये। भारत और पाकिस्तान दोनो पड़ोसी हैं। कुछ इस तरह बटे कि जनता की मंशा के बहाने दिल बंट गये और अब व्यावहारिकता का तकाजा यही है कि दोनों आपसी रिश्तों को सुधार कर रहें जिससे दोतनों को सहूलियतें हों। संतों और औ​लियाओं ने भी यही सलाह दी है। अपने अपने देश के लोगों के व्यापक हितों को ध्यान में रख कर कम से कम दोस्ती में कटुता ना लाएं।  लेकिन दोनों के दरम्फान अच्छे लोगों या अच्छे इरादे वाले लोगों की कोशिशों के बावजूद दुश्मनी के ज्यादा उदाहरण हैं। अभी भी यह सोचना बड़ा कठिन लगता है कि काहे आशाएं और उम्मीदें कामयाब नहीं हुई और कोशिशे बेकार चली गयीं। दिनोंदिन भरोसा घटता गया। जो अपना सबकुछ छोड़ कर वहां चले गये उन्हें मोहाजिर कह कर हिकारत की नजर से देखा जाने लगा। उम्मीदें पस्त होने लगीं। हालांकि यह सच है कि दोनों देशो के रिश्तों कभी मधुर नहीं रहे पर कोशिशें तो चलती रहीं। विभाजन की रेखा को खून से खींचने के कुछ ही दिन के बाद 1950 में लियाकत – नहरू समझौता हुआ। इस समझौते के बाद दोनों के बीच वीसा के अाधार पर यात्रायें आरंभ हो गयीं। 1960 में विश्वबैंक की पहल पर सिंधु जल समझौता हुआ। यह समझौता प्रमाणित करता है कि दोनोनो देश एक दूसरे और अपने अपने हितों के प्रति सजग हैं। यहां तक कि 1972 में शिमला समझौता भी यह साबित करता है कि पाकिस्तान के भयानक गृहयुद्ध के बाद और बंगलादेश के उदय के बाद भी भारत ने पाकिस्तान के साथ रिश्ता निभाने की कोशिश की। इसके बाद माहौल बिगड़ता गया और दिनोंदिन राह में कांटे पनपते गये। रास्ता इतना कंटीला हो गया कि उसपर आगे बढ़ना कठिन हो गया और यह स्थिति आज तक कायम है। जब मोदी जी ने सत्ता संभाली और शपथ ग्रहण समारोह मे नवाज शरीफ आये तो क्षितिज पर उममीद की किरण हल्की धाही दिखायी पड़ी। दोने उदारवादी नेताओं की केमिस्ट्री कुछ आशाजनक महसूस हो रही थी।  सकारात्मक सोच के लोग उममीद से भर गये थे। शीत युद्ध के बाद की दीनिया में शायद यह पहला मौका था। व्यवसायी वर्ग खुश था। दुनिया के लेग यह सोचने लगे थे कि दोनों मुल्कों ने समस्या के समाधान के लिये सही तरीका अपनाया है। लेकिन ये तरीके हालातों को नहीं बदल पाये। बारिश के बाद उगा हुआ इंद्रधनुष जैसे धीरे- धीरे आकाश में बिला जाता है उसी तर उस हालात से उभरी उममीदें मिट गयीं। उस तरफ कुछ स्वार्थी ततवों ने यह हवा उड़ाई कि मोदी के सहयोग व्यापारी नवाज अपना पारिवारिक कारोबार भारत ले जायेगा। नवाज पर से भरोसा उठने लगा और पाकिस्तान में सोच विकसित हुई कि नवाज भारत के हित में काम कर रहा है। एक नयी अफवाह ने अविश्वास की आग में घी का काम किया कि अमरीका पाकिस्तान को किनारे रख भारत को परमाणु क्लब में लाना चाहता है। दुर्भाग्य से नवाज उसी समय बीमार हो गये और भरोसे का सत्यानाश हो गया। रही सही कसर कश्मीर के हाल की समस्या ने पूरी कर दी और वहां कश्मीरियों को मारने का मतलब पाकिस्तानियों को मारना समझाया जाने लगा। वहां यह कहा जाता है कि भारत शांति के बारे में केवल बोलता है कुछ करता नहीं। वह भरोसे के लायक नहीं है। जिन लोगों भारत के भरोसे को ऐसा मिटाया वे जब इस तरह की बात करें तो साचिये भरोसा कहां गया। अब भारत को किसी भी स्थिति के लिये तैयार रहना चाहिये।

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