CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Monday, August 8, 2016

जहन्नुम में बदलता जन्नत

जबसे भारत आजाद हुआ तबसे कश्मीर की फांस उसकी गले में फंस गयी। कश्मीर के बारे बहुत कुछ लिखा गया और कई तरह के दावे किये गये। आज कश्मीर उत्त्पत हे। एक वर्ग आजादी की माग कर रहा है पर आजादी किससे? राजनीति की रोटियां सेंकने वाले राजनीतिज्ञों ने कश्मीर के बारे में वहां की जनता को बरगलाया है, उनके दिमाग में जहर भर दिया है खासकर अधिमिलन के नाम पर। कश्मीर के भारतसंघ में अधिमिलन (अक्सेसन) पर भी कई तरह की बातें हुईं। कश्मीर वाले भी कश्मीर का अलग वजूद बताते हैं और इसीलिये अपना विशेष दर्जा वे चाहते हैं। इसी की आड़ में हरवक्त दंगे, फसाद और आतंकवाद चलता रहता है। कुछ लोग जिसका इसतरह की स्थिति से स्वार्थ हे वे इसे हवा देते रहते हैं। लेकिन तार्किक तौर पर सोचें कि राजा हरि सिंह द्वारा हस्ताक्षरित अधिगम पत्र अपने आप में पूर्ण है और इस पर उंगली नहीं उठाई जा सकती है। यह अधिगमन पत्र अगर सक्षम नहीं है तो भारत संघ में  अन्य रियासतों का विलय भी संदेह के घरे में आ जायेगा। ततकालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जो जनमत संग्रह की बात की थी और राजा हरिसिंह की कैद से शेख अब्दुल्ला को छुड़वाया था यह सब नेहरू की अपनी बात थी , अधिमिलन पत्र में इसका जिक्र नहीं है। यही नहीं जिस धारा 370 की बात की जा रही और तरह तरह के तर्क दिये जा रहे हैं वह उस भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त है जिसे आजहादी के ढाई साल बाद अमल में लाया गया। यह भी अधिमिलन पत्र का अंग नहीं है। फिर भी यह पूछा जा सकता है कि क्या धारा 370 पत्थर की लकीर है। यह मानकर चलें कि मौजूदा राजनीतिक परिस्थिति में धारा 370 नहीं हटाया जायेगा। लेकिन इससे जनमत संग्रह की मांग को कहां बल मिलता है? इसमें राज्य और केंद्र के रिश्तों की कैफियत है। अलबत्ता , जम्मू कश्मीर की व्यवस्था भारत के भविष्यत शासन व्यवस्था का एक मॉडल होगी। क्योंकि आने वाले दिनों में अन्यान्य राज्य भी ज्यादा स्वायतता की मांग कर सकते हैं।  जनमत संग्रह जैसा कि भारत ने दुनिया को आश्वासन दिया था एक बेकार कथ्य है। क्योंकि आखिरी मौके पर पाकिस्तान इसे मानेगा नहीं। उसे डर है कि कहीं कश्मीर का हड़पा हुआ हिस्सा भी हाथ से ना फिसल जाये। जिन्होंने राजनीति विज्ञान पढ़ा होगा उन्हे यह मालूम होगा कि राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद द्वारा 11 अप्रैल 19548 को पारित संकल्प 47 में राष्ट्र ने पाकिस्तान को कहा था कि अधिकृत कश्मीर से फौज हटा ले। पर पाकिस्तान ने ऐसा नहीं किया। क्योंकि उसे डर था कि शेख अब्दुल्ला की कश्मीर पर पकड़ है और उसे भारी विजय मिलेगी। यही नहीं पाकिस्तान ने मामले को और उलझा दिया।  1963 में इसने गिगित और बल्टिस्तान का हिस्सा चीन को सौंप दिया। चीन ने वहां अपनी फौज बैठा रखी है। अब जनमत संग्रह का अर्थ होता है सारे हिस्से को शमिल किया जाय और यकीनन चीन उस भाग को खाली करने से रहा। यह मानने में किसी को संदेह नहीं है कि वहां सेना के हाथों जनता के अधिकारों का हनन हुआ है पर वहां उसपार से आये लोगों की गुंडागर्दी के कारण युद्ध जैसी स्थिति बनी रहती है और ऐसे क्षेत्र में सुरक्षा व्यवस्था  में मानवाधिकार के हनन की घटना हो ही जाती है। लेकिन इसकी रोशनी में देखें तो जितने लोग कश्मीरियों के साथ हमदर्दी जता रहे हैं उतने लोग कश्मीरी पंडितों के बारे में कुछ नहीं कहते। उन्हें कश्मीर से खदेड़ दिया गया। उनकी महिलाओं से कुकर्म किया गया, उनके घरों को जला दिया गया, वे घर बार छोड़ कर चले गये। उनका दोष क्या था? यही ना कि वे हिंदू  थे या सिख थे और भारत के समर्थक थे। कुछ लोग वहां आजादी की मांग कर रहे हैं। भारत के शासन से आजादी। फर्ज करें कि वहां जनमत संग्रह करवाया जाता है। पांच जिलों में जनमत संग्रह होगा भी। जनता वोट भी डालेगी। लेकिन क्या वह पाकिस्तान के साथ जायेगी? नहीं कश्मीर की जनता स्वतंत्र रहना चाहेगी। पाकिस्तान को यही डर है क्योंकि जैसे ही ऐसा होता है उसका दो राष्ट्र का पिट जायेगा। अगर सरकार कश्मीर पर कुछ समझौता  करती भी है, जो वह करने के लिये सक्षम है, तो क्या वहां यानी पाकिस्तान में कोई है जो इसे तय कर सके। फौज तो हरगिज कोई समझौता नहीं होने देगी।  कश्मीर जो सदा से धरती का स्वर्ग था अब जहन्नुम में बदल गया है और देश उसके लिये आठ आठ आंसू रो रहा है। 

0 comments: