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Friday, September 16, 2016

बिहार की सियासत में भारी तनाव

बिहार की सियासत में भारी तनाव के संकेत
आज बिहार फिर सुर्खियों में है। अबसे पहले सुशासन बनाम जंगलराज की चर्चा पर सुर्खी थी ओर जंगलराज बनाम शहाबुद्दीन राज को लेकर वहां की राजनीति सुर्खियों में है। राजद नेता मुहम्मद शहाबुद्दीन 11 साल के बाद जेल से छूटे हैं और फिर बिहार में खास कर के लालू प्रसाद यादव और उनके संबंधों की प्रगाढ़ता चर्चा का सबब बन गयी है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसमें बहुत कुछ नहीं कर पा रहे हैं। विगत 9 सितम्बर को झारखंड  में करमा पर्व पर आयोजित सभा में उन्होंने करमा जाति को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने का सुझाव दे कर बिहार-झारखंड  के राजनीतिक माहौल को गरमाना चाहा था। लेकिन मुहम्मद शहाबुद्दीन के जेल से आने पर ऐसा राजनीतिक चक्रवात उठा कि नीतीश कुमार के सारे समीकरण गड़बड़ हो गये। बिहार और उत्तर प्रदेश में कुर्मी जाति बड़ी ताकतवर है ओर इसकी लॉबी का असर भी व्यापक है साथ ही नीतीश भी इसी जाति के हैं। नीतीश कुमार को यह अंदाजा नहीं था कि शहबुद्दीन की रिहाई से जो बगूले उठेंगे वे एक भारी विवाद को जन्म देंगे। कुरमी वाला मामला दब गया या यों कहें एकदम समाप्त ही हो गया। शहाबुद्दीन ने बाहर आते ही नीतीश कुमार पर गोले दागने लगे। हालांकि लालू ने जानबूझ कर कुछ कहा नहीं शहाबुद्दीन को दूसरे नेता रघुवंश प्रसाद सिंह की परोक्ष शह मिल गयी। रघुवंश ने कहा था कि वे नीतीश को मुख्यमंत्री बनाये जाने के पक्ष में नहीं थे। हालांकि नीतीश कुमार आदतन ऐसी आलोचनाओं पर चुप ही रहते हैं पर इसबार वे उत्तेजित दिख रहे हैं और उन्होंने कहा कि बिहार की जनता बखूबी जानती है कि उसने किसे चुना है। यही नहीं अपराध नियंत्रण कानून के अंतर्गत नीतीश कुमार शहाबुद््दीन को फिर जेल भेजने की तैयारी में हैं। उन्होंने कई कानून विशेषज्ञों से इसपर चर्चा भी की है। अभी तो यह भी देखना है कि नीतीश जी  पार्टी के विधायक गिरधारी यादव शहाबुद्दीन को रिहा किये जाने के बाद उनके स्वागत में गये थे, अब नीतीश कुमार उन पर कार्रवाई करते हैं या नहीं। यही नहीं, अब तो बिहार में यह चर्चा चलने लगी है कि इस ताजा झटके को झेलने की ताकत नीतीश – लालू के गठबंधन में नहीं है। हो सकता है यह गठबंधन टूट जाय और नीतीश पुराने दिनों की तरह भाजपा के दामन में आ गिरें। दोनों दलों में गलाबाजी जोरों पर है पर लालू चुप हैं। हालांकि राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि इस ताजा स्थिति को गठबंधन झेल लेगा। नीतीश कुमार ने विधानसभा अध्यक्ष का पद और कई अन्य महत्वपूर्ण विभागों पर अपनी पार्टी के लोगों को रखा है। अब अगर लालू अपनी आदत के मुताबिक जद यू में फूट डालने का प्रयास करते हैं तो शायद कामयाब नहीं हो पायेंगहे, क्योकि विधानसभा अध्यक्ष नीतीश के वफादार हैं। लकिन शहाबुद्दीन कांड के बाद चर्चा है कि दोनों पार्टियों में दूरी बढ़ती जा रही है। लालू की चुप्पी को कुछ लोग एक चाल बता रहे हैं। लालू ऐसा इसलिये कर रहे हैं कि नीतीश पर दबाव बना रहे और सही समय पर चोट पहुंचायेंग।  दोनों दलों में शरू से ही थोड़ा तनाव है। हालांकि बड़े नताओं ने हाथ मिला कर सरकार गढ़ लिये पर नीचे के कार्यकर्ताओं में मामला जमा नहीं। नतीजा यह हुआ कि वहां दोनों दलों का कोई सामान कार्यक्रम नहीं है। यही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर आने की भी महत्वाकांत्र्क्षा यहां काम कर रही है। जब लालू जी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री घोषित किया था उस समय एक घोषणा भी की थी कि ‘लालटेन लेकर दिल्ली तक जायेंगे।’ उधर जनितीश जी ने यह नारा दिया कि “शराबमुक्त भारत और संघमुक्त भारत” तो वे लोग यह समझने लगे कि नीतीश की पलकों में भी दिल्ली का सपना है। नीतीश कुमार भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के कुर्मी वोटरों को लुभाकर भाजपा तथा सपा की राह में रोड़े अटकाना चाहते हैं तथा कांग्रेस से मिल कर अपना प्रभावक्षेत्र बढ़ाना चाहते हैं। शहाबुद्दीन की रिहाई से केवल यही हुआ है कि दोनों दलों की टकराहट सबके सामने आ गयी है। अब देखना यह है कि इसका असर कहां तक पड़ेगा। सोशल कॉन्ट्रेक्ट का सिद्धांत तो यह बताता है कि अभी तुरत कुछ नहीं होने वाला लेकिन शहाबुद्दीन फैक्टर इस आग में घी का काम कर रहा है। यह असंभव नहीं है कि बिहार में गठबंधन टूट जाय तथा वहां नीतीश जी फिर से भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनायें। वैसे बिहार में भाजपा की हालत अच्छी नहीं है। अभी तक वहां राज्य स्तरीय प्रवक्ता नही नियुक्त कर सकी भाजपा। यह साफ बताता है कि उसमें भी ‘आल इज वेल नहीं है।’ ऐसी सूरत में हो क्या हो सकता है इसका अंदाजा कठिन है।

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