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Sunday, September 4, 2016

शिक्षक: गुरू से सर तक का सफर

भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक गुणों से ओतप्रोत शिक्षकों के द्वारा ही समाज में व्याप्त बुराईयों को समाप्त करके एक सुन्दर, सभ्य एवं सुसंस्कारित समाज का निर्माण किया जा सकता है। शिक्षक शब्द का उद्भव शिक्षा से हुआ है और महर्षि अरविंद के मुताबिक शिक्षक वह जो चरित्र के साथ साथ राष्ट्र की संस्कृति की शिक्षा दे। महर्षि अरविंद ने शिक्षकों के सम्बन्ध में कहा है कि ''शिक्षक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से सींचकर उन्हें शक्ति में निर्मित करते हैं।' 'महर्षि अरविंद का मानना था कि किसी राष्ट्र के वास्तविक निर्माता उस देश के शिक्षक होते हैं। इस प्रकार एक विकसित, समृद्ध और खुशहाल देश व विश्व के निर्माण में शिक्षकों की भूमिका ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। इसलिए प्रत्येक बच्चे को सर्वोत्तम भौतिक शिक्षा के साथ ही साथ उसे एक सभ्य समाज में रहने के लिए सर्वोत्तम सामाजिक शिक्षा तथा एक सुन्दर एवं सुरक्षित समाज के निर्माण के लिए बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लेने के लिए सर्वोत्तम आध्यात्मिक शिक्षा की भी आवश्यकता होती है। भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक गुणों से ओतप्रोत शिक्षकों के द्वारा ही समाज में व्याप्त बुराईयों को समाप्त करके एक सुन्दर, सभ्य एवं सुसंस्कारित समाज का निर्माण किया जा सकता है। लेकिन आधुनिक संदर्भ में शिक्षक का अर्थ होता है जो छात्रों को पढ़ा दे और वह छात्र परीक्षा में अच्छे अंक से पास कर जाय। लेकिन आज भी ऐसे शिक्षक हैं जो छात्रों से सम्मान पाते हैं और शिक्षा को सही रूप में प्रदान करते हैं। आज जब हम शिक्षक की बात करते हैं तो दिमाग में एक अजीब सी छवि उभरती है। वह छवि डा. राधाकृष्णन या उनके समतुल्य शिक्षकों की नहीं होती बल्कि एक चतुर किस्म के अयोग्य आदमी की होती है। इसका मुख्य कारण है शिक्षा के चरित्र मे नकारात्मक गिरावट। अगर भारत में शिक्षा का इतिहास देखें तो पायेंगे कि तक्षशिला, नालंदा से चलती हुई आज राजनीतिक पार्टियों की पिछलग्गू के तौर खड़ी है। पहले तो मुस्लिम हमलावरों ने हमारी शिक्षा को बिगाड़ा और उस बिगड़ी प्रणाली का पोषण करने वाले शिक्षक तैयार हुये। इसके बाद अंग्रेजों ने इसे दूषित किया और उस दूषण को भूषण बताने वाले शिक्षक बनाये गये। इसके बाद आजाद भारत में राजनीतिक दलों ने अलग अलग अजेंडे तैयार किये और उन अजेंडो को आगे बढ़ाने के लिये उसी तरह के शिक्षक गढ़े गये। शिक्षकों को दोष देना एक फैशन सा बन गया है लेकिन उनका दोष नहीं है। वे भी इसी व्यवस्था के शिकार हैं जहां शिक्षा की नीति गढ़ने वाला या तो शातिर राजनीतिज्ञ होता है या फिर जरूरत से ज्यादा अहमक, एकदम बेपढ़ा। अगर आंकड़ों पर भरोसा करें तो देश में 9503 स्कूलों में शिक्षक ही नहीं हैं और एक लाख 22 हजार 253 स्कूलों में पांच वर्गों पर एक शिक्षक हैं , 42 हजार स्कूल भवन विहीन हैं और लाख से ज्यादा स्कूलों में भवन के नाम पर एक ही कमरा है। रिश्वत देकर या फिर किसी राजनीतिक पार्टी के नेता की कृपा से नौकरी पाये शिक्षक हमेशा या तो भ्रष्टाचार में लिप्त रहेंगे या फिर राजनीतिक ठकुरसुहाती में।आदर्श शिक्षक के छात्र इतने परिपक्व हो जाते हैं कि निर्णय ले सकें कि इस अनंत ब्रह्माण्ड में उन्हें क्या सीखना है और क्या नहीं। यह समझ ही व्यक्ति निर्माण है और इस समझ को विकसित करना हर शिक्षक की जिम्मेदारी। इस जिम्मेदारी से भागने वाला व्यक्ति शिक्षक नहीं, केवल एक वेतनभोगी कर्मचारी है जिसके लिए शिक्षक दिवस के आयोजन का कोई औचित्य नहीं। शिक्षक शब्द का भयानक अवमूल्यन हुआ है। गुरू से सर तक के होने सफर में शिक्षक एक महान हस्ती से  जिसकी तुलना ब्रह्मा, विष्णु से की जाती थी ,आज अवमूल्यित हो कर जब सर हो गया तो वह साधारण या कहें मामूली वेतनभोगी कर्मचारी रह गया है। देश की समस्त समस्याओं का कारण यही है और जब तक इसे नहीं सुधारा गया तथा शिक्षक बिरादरी अपनी पूर्व स्थिति में नहीं लौटी तब तक यह समस्या कायम रहेगी। अभी तो समाज टूटना आरंभ हुआ है, आगे और भी कुछ हो सकता है।

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