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Sunday, October 16, 2016

वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा

वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा

आज हमारा देश एक खास किस्म के परिवर्तन से गुजर रहा है। ऐसा परिवर्तन जिससे हमारी आने पीढ़ी प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकेगी। सबसे बड़ीण् पीड़ा यह है कि हम विकास तथा संचार के एक ऐसे महाजाल में फंस गये हें कि इस ओर कभी सोचते नहीं। हमारी औलादें सोशल मी​डिया के नकारात्मक पक्ष के प्रति व्यसन की सीमा तक लगाव महसूस कर रही है। हम कभी उन्हें यह बताने का समय नहीं निकाल पा रहे हैं कि इलेक्ट्रानिक मीडिया से सोशल मीडिया के बचि जो गरमागरम बहसे चल रहीं हैं और जिससे वे बच्चे मुब्तिला हैं वह उन्हें मानसिक तौर पर उन्मादी बना रही है। उनका मन राजनीतिक रूप में आहत हो रहा है। आज से लगभग 50 बरस पहले जो सियासी मुबाहिसे थे वे इल्म और  अदब के दायरे में होते थे। उनका एक खास तर्क होता था। समाज की और पद की मर्यादाओं का ध्यान रखा जाता था। आज की तरह नहीं था जिसमें पपपू और फेंकू से लेकर खून की दलाली जैसे अमर्यादित शब्दों का इतना इस्तेमाल हो रहा है कि हमारे बच्चे यही सीखने लगे हैं। किशोरों में सियासत को लेकर एक किस्म नकी उत्तेजना दिखने लगी है। सोशल मीडिया में वाइरल किसी कवि संजय जायसवाल ने लिखा  है।

आजकल नहीं लिखा जा रहा है

स्याही से कागज पर मुहब्बत

लिखा जा रहा है

रक्त से

धरती के सीने पर नफरत

सचमुच हम क्या दे रहे हैं अपने भविष्य की पीढ़ी को। क्या ऐसे ही भारत की कल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी।  राम ने तो केवल एक रावण को मारा वह भी इसलिये कि उसने एक महिला का अपहरण किया था। आज तो हर चौराहे पर रावण अट्टाहास कर रहा है और हम मशगूल हैं टी वी तथा सोशल मीडिया में चल रही बहसों से। क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं है कि अपनी आने वाली पीढ़ी को हम बतायें यह जो भ्रम है वह एक गिरावट है , इससे बचो। अजीब सी हैरत होती है कि लोग चुप हैं या हाथ में पत्थर उठाये दिख रहे हैं। बकौल महाकवि  केदारनाथ सिंह के

वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा

यह क्या जो दिखता है धुआं धुआं सा

हमारा कर्तव्य है कि हम अपने किशोरों को सियासत की जरूरियातों को बतायें ताकि वे हकीकत देखें, अच्छाई देखें। हमें अपने धार्मिक ग्रंथों में लौटना होगा।

उसे दृष्टि दो ताकि वह देख सके

 कबीर, सूर ,तुलसी और गालिब को

उसे मत दो हथियार

उसे दे सकते हो तो दो

कबीर वाणी , रामचरित मानस

उस समय घोर निराशा होती है जब दिखता है कि समाज में किस कदर घृणा फैली है कि सोशल मीडिया पर प्रलाप से बलवा हो जा रहा है और कुछ लोग उसे जायज ठहरा रहे हैं। कु लोगों को मानना है कि हमें अपने बच्चों को या आने वाली पीढ़ी को चुनाव के बारे में सिस्टम की खामियों के बारे में बताना चाहिये। पर अभी ऐसा अभी जरूरी नहीं है। अभी वे जितना जान चुके हैं वही गफी खतरनाक है। सोचिये कि एक टीनएजर लड़का दिल्ली के निर्भया कांड का हीरो कैसे हो जाता है। सड़क पर कचरा बीनते बच्चों किशोरों से लेकर सुधार गृहों में बंद बच्चो की बढ़ती संख्या एक खतरनाक संकेत दे रही है। आज हमारा सबसे बड़ा कर्त्तव्य है कि हम अपने बच्चों को बतायें कि कभी​ विश्वगुरू कहे जाने वाले इस राष्ट्र की सबसे बड़ी समस्या क्या है। हमें उन्हें यह बताना होगा कि बिना हमलावर बने भी असहमति जाहिर की जा सकती है। महात्मा गांधी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी , रामनोहर लोहिया और विवेकानंद ने भी तो कई मामलों में बड़े विरोध किये थे , भारी असहमति जतायी थी पर क्या वे शालीनता और अदब के दायरे से निकले थे वे। आज उदाहरणों के प्रतिमान बदल गये हैं। राम का उदाहरण रावण वध के लिये दिया जाता है, शिव की मिसाल तांडव के लिये दी जाती है पर कोई राम की मर्यादा या शिव के गरलपान की बात नहीं करता। भगवान बचाये पर हम राजनीतिक तौर पर एक  ‘नारसीस्टिक और सीनिक’  पीढ़ी को विकसित कर रहे हैं।  हमें यह रोकना होगा वरना कल जो भारत हम अपने बच्चों को सौप कर जायेंगे  वह हमारे उस कश्मीर की तरह दिखेगा जहां जिन हाथों में कलम और किताबें होनी चाहिये उन हाथों में कलाशिनिकोव और पत्थर हैं।

मत फैलाओ तुम जहर

नयी पौध विषाक्त हो रही है

यह उसके खिलने का समय है

भविष्य को बचा लो घृणा से, नफरत से।

हम अपने पूर्वजों के अख्यानों- उपख्यानों का उपयोग कर सकते हैं, अपने अतीत के सुंदर वक्त का जिक्र कर सकते हैं। आज किशोर पीढ़ी हर मामले को सोशल मीडिया या इलेक्ट्रानिक मीडिया के आइने में देखती है। वह हर जगह अलग अलग दिखती है। उसका मन और मानस एक गुम चोट का शिकार है। उसके आहत मन को मरहम की जरूरत है, उन्माद की नहीं।

यह शहर कि जिसकी जिद है सीधी सादी

ज्यादा से ज्यादा सुख सुविधा आजादी

तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में

यह अलग अलग दिखता है हर दर्पण में

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