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Tuesday, October 18, 2016

सुलग रहे हैं गांव


सुलग रहे हैं गांव

बगावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में
मैं जब भी देखता हूं आँख बच्चों की पनीली है

अदम गोंडवी की ये दो पंक्तियां देश में बढ़ रहे कृषक दंगों के कारणों को बयान करतीं हैं। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो की ताजा रपट ‘क्राइम इन इंडिया’ में कहा गया है कि देश में कृषक दंगे 2015 में 327 प्रतिशत बढ़ गये। यह पिछले साल 2014 के 628 कृषक दंगों के मुकाबले एक वर्ष में बढ़कर 2015 में 2683 हो गये। इनमें दंगों की ज्यादा घटनाएं बिहार में 1156(43 प्रतिशत) , उत्तर प्रदेश में 752 (28 प्रतिशत ) और झारखंड 303 (11) प्रशिशत हुईं। इन तीनों प्रांतों में कुल जितने दंगे हुये वे आलोच्य अवधि में देश में हुए कृषक दंगों 82 प्रतिशत थी। देश के अन्य भागों में से केवल 15 राज्यों में ही  प्रतिशत कृषक दंगे हुये। सबसे अजीब बात है कि दंगों की कोटि में स्थान पर है तथा यह वर्गीकरण बड़ा भ्रामक है। भारतीय दंड संहिता की धारायें 147, 151 और 153 (ए) के तहत जो मामले दर्ज किये जाते हैं उन्हें ही दंगों की कोटि में गिना जाता है। लेकिन कृषक दंगों के बारे में किसी की कोई स्पष्ट राय नहीं है ना कोई कानूनी परिभाषा। इसे लेकर समाजशा​िस्त्रयों और पुलिस अपसरों में काफी भ्रम है। पुलिस के चंद आला अफसरों के मुताबिक यह जमीन से सम्बंदित मसला है। कृषक नेताओं का मानना है कि राजनीतिक संकट है और इसका कारण केवल आर्थिक नहीं है। यह गंभीर कृषक संकट की अभिव्यक्ति है। उत्पादन में कमी , कृषि उत्पादनों की बढ़ती लागत, वैकल्पिक रोजगार की कमी  और विकास के अभाव के फलस्वरूप इसका आविर्भाव हुआ और इसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित किया। ये सारे मसले किसी को भी बिहार तथा उत्तर प्रदेश में देखने को मिल जायेंगे। ये दोनो राज्य अति उत्पादक गंगा के मैदान में हैं। यहां कृषि संसाधनों का बाहुल्य है तथा सिंचाई के साधन खास कर नहर भी हैं। लेकिन , विगत दो सालों से लगतार सूखा और और फिर अनाजो की बढ़ती कीमत ने समस्या को गंभीर बना दिया। विरोध प्रगट करते किसान आसपास के शहरों में जमा होते हैं और आनन फानन में समाधान की मांग करते हैं। इसमें जो सबसे खतरनाक बात है वह है कि वे सारे विरोध प्रशासन के खिलाफ होते हैं।  चाहे वे नौकरी की मांग हो या आरक्षण की। एन सी आर भी के सारे आंकड़े राज्य सरकार के अपराध रिकार्ड ब्यूरो से लिये जाते हैं। राज्य का ब्यूरो इसे स्थानीय पुलिस से लेता है। अब अगर कि मामले को उपरोक्त धाराओं के तहत नहीं दर्ज किया गया तो वह दंगा नहीं हुआ माना जायेगा।  जहां तक कृषक दंगों का सवाल है वह दरअसल चार पांच समस्याओं की अभिव्यक्ति है। इसमें पहला है जमीन अधिग्रहण का विरोध, दूसरा है जाति आधारित राजनीति और आरक्षण की मांग, तीसरा है नौकरी और अन्य सुविधाओं की मांग तथा अंतिम उग्र वाम आंदोलन। लेकिन पिछले दिनो उग्र वाम आंदोलन की घटनाओं का ज्यादा उभार नहीं दिखा है। कुछ लोगों का मानना है कि भूमि अधिगहण नहीं होने के कारण देश में औद्योगिक विकास नहीं हो पा रहा है। औद्योगिक विकास के लियविक्त की हुकूमत चाहती है कि तेजी से भूमि अधिग्रहण हो। इसके लिये यू पी ए सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन प्रस्तुत किया। इसके तहत कुछ एद्देयों की पूर्ति के लिये  भूमि अधिग्रहण अविलम्ब हो सकता है। लेकिन जब भूमि अधिग्रहण कानून में यह संशोधन एक अध्यादेश के माध्यम से पारित हो गया तो उसी के साथ देश के ग्रामीण इलाकों में दंगों की संख्या तेजी से बढ़ गयी। नये संशोधन की कृषक नेताओं और सिविल सोसायटी इत्यादि की तरफ से भारी आलोचना की गयी। झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास झारखंड को देश का निवेश केंद्र और मोदी जी के ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत यहीं से करना चाहते​ हैं। इसके लिये अगले साल फरवरी में भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने यहां ‘झारखंड ग्लोबल इन्वेस्टमेंट समिट 2017’ के आयोजन की योजना बनायी है  ताकि अन्य राज्यों को राह दिखायी जा सके। लेकिन आंकड़े श्री दास के खिलाफ वातावरण के संकेत दे रहे हैं। देश में गत वर्ष कुल 191 औद्योगिक  दंगे हुये जिसमें 44 झारखंड में ही हुये। ये ग्रामीण- औद्योगिक  दंगे दरअसल बड़े उद्योगों को कारोबार की सुविधाएं मुहैय्या कराने के सरकारी कदमों के फलस्वरूप किसानों, आदिवासियों और अन्य समुदायों  द्वारा जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है उनसे पराजय की हताशा की अभिव्यक्ति हैं।  यही कारण है कि झारखंड में 2014 के महज 6 कृषक दंगों  की तुलना में 2015 में 303 कृषक दंगे हुये। इससे लगता है कि वहां के आदिवासी समूहों और सरकार के विकास के विचारों में भारी मतभेद है। क्योंकि इससे बेकारी बढ़ती है और राजगार के अभाव की समस्या का समाधान नहीं हो पा रहा है। ऐसे  बेकार और हताश नौजवानों की संख्या बढ़ती जा रही है और बढ़ता जा रहा है गुस्सा। समाजशा​िस्त्रयों के मुताबिक कश्मीर की अशांति में इसकी छाया दिखती है। यही नहीं गुजरात के पाटीदार आंदोलन, महाराष्ट्र के ताजा मराठा आंदोलन, हरियाणा के जाट आंदोलन सबमें रोजगारविहीन नौजवानों के गुस्से की छाया दिख रही  है। एन सी आर बी के आंकड़ों के मुताबिक देश में रोज सात कृषक दंगे हो रहे हैं। हालांकि यह संख्या और ज्यादा है। इस स्थिति के कारण कुशल और अर्द्ध कुशल नौजवानों की एक बड़ी तादाद रोज बाजार में प्रवेश कर रही है जो रोजगार नहीं मिलने के कारण अपराध की ओर झुक रहे हैं। एक अजीब सा गुस्सा सुलग रहा है जो किसी भी दिन लपटों में बदल सकता है। इसी हताशा को रेखांकित करते हुये दुष्यंत कुमार लिखते हैं,

खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही 
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए 

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