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Sunday, October 9, 2016

न जाने क्यों हिंसक होते जा रहे हैं लोग

न जाने क्यों हिंसक होते जा रहे हैं लोग

यकीनन किसी को यह मालूम नहीं होगा कि हमारे समाज में अचानक इतनी हिंसा क्यों बढ़ती जा रही है? जब देखिये तो लड़कियों पर हमले, आपस में एक दूसरे पर हमले। सोशल मीडिया पर कटु शब्दों की बरसात। नेताओं के भड़काऊ बयान। मनोविज्ञानी कहते हैं कि समाज में गहरी उदासी के कारण ऐसा हो रहा है। पर शायद इस तरह की उदासी का आना पहला मौका नहीं है। फिर हमारा समाज इतना गुस्से में क्यों है जिसकी पराकाष्ठा वाचिक और सक्रिय हिंसा में हो रही है। हम एक दूसरे को ताकत दिखाने में लगे हैं और यह नहीं सोचते कि ताकत का वह दिखावा  ‘मनसा और वाचा ’ के स्तर कितना बर्बर है। इसके विरोध में कोई भी दलील खारिज कर दी जाती है। ऐसा अक्सर देखा जा रहा है कि इस पर शासन या प्रशासन के माथे पर बल तक नहीं पड़ रहे हैं। कभी कुछ बहुत बुरा हो जाता है तब हम थोड़ी देर न्याय की गुहार लगाते हैं और सोशल मीडिया में कुछ लिख देते हैं और बात आयी गयी हो जाती है। हम जिस न्याय की बात कर रहे होते हैं उसे भूल जाते हैं। दुनिया के शीर्ष मनोविश्लेषकों ने सोशल मीडया की बढ़ती लत को इसके लिये दोषी ठहराया है। कुछ ने तो इसे ‘आत्मरति या आत्ममोह ’ की बीमारी बताया है। पर शायद यह अब्पने देश में लागू नहीं हो सकता। क्योंकि समाचार माध्यमों पर सरकार जिस तरह नियंत्रण उससे आदमी के गुस्से या उदासी को अभिहव्यक्त कर पाना कठिन है। सोशल मीडिया पर इस तरह की बंदिशें नहीं हैं। इसमें लोगों के गुस्से का हू ब हू स्वरूप दिखता है। यह गुस्सा कई बार राजनीतिक तौर पर सही होता है। जिसके पक्ष में या विपक्ष में लोग खड़े हैं उसकी बातें करते हैं। लेकिन अक्सर इसमें जो लिखा जाता है उससे हिंसा की झलक मिलती है। लिखने वाले एक खास किस्म के आक्रामक मूड में दिखते हैं। अगर वे न्याय की बात करते हैं तो सीधे सजा की बात करते हैं, हमले की बात करते हैं तो एकदम नेस्तनाबूद कर देने की बात करते हैं। कोई सोचता नहीं कि इन हालातों के साइड इफेक्ट्स क्या होंगे। यह भी दिलचस्प है कि अपने समाज में यह काम आमजनता नहीं करती। कुछ खास लोग ही हैं जो खुद को आम जनता का हमनवां मानते हैं। जरा सो​चिये इसपर कोई सोचता नहीं, क्या कहा जा रहा उसपर कोई विचार नहीं करता। एकदम त्वरित प्रतिक्रिया की जाती है। अब यह कोई नहीं सोचता कि जो कुछ भी कहा जा रहा है वह हो सकता है कई मामलों में सच हो पर वही चरम सत्य है ऐसाह भी नहीं हो सकता है। यह मान लेना कि कोई नायक है या खलनायक है (जैसा भी उसे बनाया गया है) और उसके साथ क्रोधजनित आचरण या पाखंडपूर्ण आचरण करना एक तरह से भीड़ का न्याय है। मोदी जी का सीना 56 इंच का है यह मान लेना एक बात है और वह ऐसा ही है अन्य नहीं यह मानलेना कितना उचित है?राहुल गांधी सियासी तौर पर पूर्ण अनुभवी नहीं है यह मानना एक बात है और यह एकदम सही है यह मानलेना क्या कहा जायेगा? कोई वस्तुनिष्ठा पर बहस नहीं करता। पूरा समाज सरकार ज्विरोधी या सरकार समर्थक में तकसीम हो गया है। ये नहीं सोचते कि राहुल का समर्थन मोदी जी का विरोध नहीं भी हो सकता है। सर्जिकल स्ट्राइक एक सच है लेकिन इसके सबूत को मांगा जाना क्यों गलत है यह बात समझ में नहीं आती। सरकार समर्थकों ने एकसुर से ऐसा करने वालों को गालियां दीं। यही नहीं सर्जिकल हमला एक फौजी कार्रवाई है उसके झूठ और सच की बात क्यों उठायी जा रही है यह भी समझ में नहीं आती। उसके झूठ और सच को लेकर इन दिनों भीषण विवाद फैला हुआ है। ना इसके पक्ष में बोलने वाले इसकी हकीकत से मुतमईन हैं ना विपक्ष में बोलने वाले सीना ठोंक कर इसे गलत साबित कर सकते हैं। जो लोग इसके खिलफ हैं वे सत्ता में रह चुके हैं और इस नाजुक मौके की मजबूरियां जानते हैं। फिर क्यों मसला उठाये घूम रहे हैं। इसकी क्या जरूरत है? लेकिन नहीं, हम भीतर से अशांत हैं। उसके प्रभाव से उद्विग्न हैं। इस हालात ने हमें सिखा दिया है कि किसी भी मसले पर उंगली उठाना जरूरी है , विचार करना नहीं। यह कहना उचित नहीं है कि हमले की बात गलत है पर इसका सबूत मांगना तो निहायत गलत है। लेकिन कोई ऐसा नहीं सोचता। हमारा समाज हमारा समाज दरअसल निराशा में जन्मी एक उत्तेजना में फंस गया है।

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