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Sunday, November 20, 2016

एक खतरनाक रिवाज की शुरुआत

एक ख़तरनाक रिवाज़ की शुरूवात 
पुराने ज़माने कहा जाता था कि राजा भगवान का अवतार होता है और राजा की आलोचना भगवान की आलोचना है. लोक तन्त्र के शुरू होने के बाद यह रिवाज खत्म हो गया. सरकार जनता की प्रतिनिधि होती थी और जनता को पूरा हक था उसकी आलोचना  करने का . यह बिल्कुल स्वस्थ परंपरा थी. पर इन दीनो कुछ अजीब रिवाज चल पड़ा है. पिछले कुछ दिनों की घटनाओ को देखें तो बात साफ हो जाएगी. जैसे इन दिनों जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय पर बहस में मतभेद को लेकर चल रही है. इसके पहले भारतीय फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान के  चेयरमैन की नियुक्ति को लेकर हुई थी.
इस साल तो बात और बढ़ गयी. अब तो जो लोग भी व्यवस्था के खिलाफ बोलते हैं कुछ लोगों की टोली उन्हे देशद्रोही घोषित कर देती है. अगर सत्तारूढ़ दल के या उसके नेता के खिलाफ किसी ने सोशल मीडिया में कुछ लिखा तो उसकी खैर नही. कुछ कथित देशभक्तों की टोली उसे देशद्रोही करार देकर उसे इतनी लानत भेजती है कि वह अपने विचार या तो व्यक्त नहीं करता या विचार बदलने को मज़बूर हो जाता है.

आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से
जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप 
बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए 
रात-रात जागते हैं; 
और गाँव की नाली की मरम्मत के लिए 
मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन की खाक 
छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं…

चाहे वा कश्मीर में हिंसा की घटना हो या उड़ी हमला हो या पाकिस्तानी अभिनेताओं पर पाबंदी का मामला हो यदि किसी ने विरोधी विचार व्यक्त किया  तो उससे सीधा एक ही सवाल पूछा जाता है कि वा देश के साथ है या देश के खिलाफ. यानी सतारूढ़ दल के अजेंडा का विरोध करने वाला देश द्रोही माना जा रहा है. केंद्र में सत्तारूढ़ दल राष्ट्र का समानार्थी बन गया है. अगर आपने उस पर उंगली उठाई तो आपकी देश भक्ति पर सवाल खड़े होने लगेंगे. सरकार के विचारों का विरोध करने वाले कार्टूनिस्टों, लेखकों या स्तंभकारों को खुल्लम खुल्ला गालिया दी जा रहीं हैं उनके खिलाफ ज़हर उगले जा रहे हैं. हाल में जो नोटबंदी हुई , पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने विरोध क्या कर दिया सोशल मीडिया मे उनके खिलाफ बवाल मच गया. केन्द्र समर्थक मीडिया ने ज़हर उगला. सारी बात राष्ट्र के नाम हो रही है. कहा जा रहा है की ममता जी राष्ट्र निर्माण का विरोध कर रहीं हैं. यहाँ एक सवाल उठता है कि राष्ट्र निर्माण का ठीकरा हर बार जनता के ही सिर पर क्यों फूटता है? गैस की सब्सिडी छोड़े जनता , टैक्स दे जनता , बैंक की लाइन में लगे जनता आख़िर ऐसा क्या है या क्या हो रहा राष्ट्र निर्माण और यह देश भक्ति है. ऐसा क्यों नहीं करते जिन लोगों को लाखों करोडों रुपये का टैक्स रिबेट दिया जाता , जिनके जुर्माने माफ़ किए जाते हैं उन्हे थोड़ी तकलीफ़ दें. रिजर्व बैंक के आँकड़े बताते हैं कि देश में 0.1 प्रतिशत ही जाली नोट हैं, उन 0.1 प्रतिशत के लिए देश के करोड़ों लोगों को बैंक के सामने खड़ा करना कहाँ तक तर्क संगत है. जब भी सरकार के किसी काम पर सवाल उठता है तो कहा यह जाता है कि हमारे देश के जवान सीमा पर जीवन को जोखिम में डाले खड़े हैं और वह भी जोखिम इस लिए कि आपकी हिफ़ाज़त हो सके , आप आराम से सो सकें. लेकिन हम यह नहीं  समझते कि  जब सवाल पूछने का समय आता है या उत्तर माँगने का वक्त आता है तो हम चुप हो जाते हैं, क्यों. हम जानना छोड़ देते हैं , समझना छोड़ देते हैं. हम भूल जाते हैं कि हमारे संविधान के निर्माताओं ने हमे अपने प्रतिनिधियों को चुनने के लिए बहुत अधिकार दिए हैं. यह समझना ज़रूरी है कि अपने नेता पर भरोसा करना एक बात है और विरोध को मार देना दूसरी बात है. विरोध को मारने के लिए ही ब्रिटिश सरकार ने देशद्रोह का क़ानून बनाया था. यह क़ानून आपके विरोधी कथन की निंदा करने के अवसर देता है, बात को बतंगड़ बनाने का मौका देता है और आपकी स्थिति को असुरक्षित बनाता है.  अब अगर देश की जनता भी मतभेद को दबाने लगे तो सरकार तानाशाह बन जाती है. देश से प्रेम प्रशंसा के काबिल है लेकिन इसी के साथ देशवासियों की अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा भी ज़रूरी है. अब अगर कोई आदमी या मीडिया का कोई हिस्सा सरकार का विरोध करता है और उसे दबाया जाता है तो इसका मतलब है कि नेता खुद को असुरक्षित महसूस करता है या तनास्धह बनाने की कोशिश कर रहा है. अभी हाल की बात है कि प्रधान मंत्री के नेतृत्व में एक कमेटी ने भा ज प के नेता अविनाश राय खन्ना को राष्ट्रीय  मानवाधिकार आयोग का सदस्य बनाने की कोशिश की. यहाँ यह जानना दिलचस्प होगा कि खन्ना ना केवल पार्टी के उपाध्यक्ष हैं  बल्कि पार्टी में जम्मू कश्मीर के प्रभारी भी हैं. खबरों को मानें तो इस पद के लिए अनेक योग्य उम्मीदवार मौजूद हैं फिर उनके चयन की क्या ज़रूरत थी. यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व  न्यायाधीश  एच एल  दत्तू भी उपलब्ध थे. मतभेद को दबा देने का दूसरा तरीका है  की राष्ट्र को ना मानकर खुद को राष्ट्र गौरव का रक्षक मान लेना. इस तरह आप ने खुद को ऐसा मान लिया कि आपकी मुख़ालफ़त देश कि मुख़ालफ़त मानी जाएगी. हाल में  गुलाम नबी आज़ाद ने नोटबंदी को उड़ी हमले के बराबर कह दिया, इस बात पर उन्हे देश विरोधी और पाकिस्तान समर्थक कहा जाने लगा. उनपर माफी माँगने के लिए दबाव दिया जाने लगा.  काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक का नतीजा आना अभी बाकी है. लेकिन अपर्याप्त योजना के कारण बैंकों की कतार में 48 लोग अबतक जान गवाँ चुके हैं. गोआ में मोदी जी ने अपने भाषण में कहा की उन्हें मालूम है कि उन्होंने किन ताकतों को ललकारा है इससे यह भी समझा जेया सकता है कि विमुद्रीकारण से ग़रीबों को जो तकलीफ़ हुई है और हो रही है मोदी जी उससे वाकिफ़ होंगे. यह जो पीड़ा है वा वास्तविक है और कई बैंकरों ने , कई विश्लेषकों ने और कई पत्रकारों ने इसे मानवाधिकार का उल्लंघन कहा है. राज्य सभा में भी सरकार ज़्यादा नहीं बोल पाई. इसका क्या मतलब है राष्ट्र को समझना चाहिए. यह विरोध को दबाया जाना एक खतरनाक रिवाज की शुरुअात है.

ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है
पर जहाँ हो वहीं रहो 
यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी 
कि ,तुम फासले तय करो और 
मंजिल तक पहुँचो.

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