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Sunday, December 4, 2016

व्यंग्य : अब तो सिनेमाघरों में भी राष्ट्रवाद का टानिक

व्यंग्य: अब तो सिनेमा घरों में भी राष्ट्रवाद का टानिक

अभी नोटबंदी का गुणगान चल ही रहा था कि मी लार्ड सुप्रीम कार्ट ने भी गाने का इक सुनहरा मौका दे दिया। मोदी जी ने रात में ठोका कार्ट जी ने दिन के उजाले में टोक दिया। बीता हफ्ता अभी बीच में झूल रहा था कि सुप्रीम कहर्ट ने एक फैसला दे दिया कि अब फिल्म शुरू होने के पहले राष्ट्रगान का बजना अनिवार्य होगा , साथ में जब राष्ट्र गान बजेगा तो परदे पर हमारा प्यारा तिरंगा लहरायेगा। अब राष्ट्र गान के बजते समय तो खड़ा होना पहले से ही अनिवार्य था। जहां तक लस्टमानंद की बद्धि जाती है आदरणी अदालत को यह बात समझ में आयी होगी ज्कि जब लोग या हमारे देश के नौज्वान छोरे - छोरियां फिल्मी हो जाते हैं तो यकीनन राष्ट्रगान सुन कर राष्ट्र भक्त हो जायेंगे। बड़ी अच्छी सोच है। जिस तिरंगे को केवल दिन में लहराने की पाबंदी है वह परदे पर रात बारह बजे तक लहरायेगा। बात शुरू करने से पहले हमने नोटबंदी की बात की थी। आप कहेंगे यार लस्टम तुम सचमुच वही हो इस तिरंगे के लहराने और राष्ट्र गीत के बजाने से नोटबंदी का क्या ताल्लुक है, बेवजह ढोल पीट रहे हो। मैं कहता हूं कि आठ नवम्बर के पहले क्या किसी माई के लाल ने यह सोचा था कि सरकार किसी पैसे वाले की धोती ढीली -गीली करवा देगी।क्या किसी ने सोचा था कि माहेदी जी तो सेठों के हिसाब से देश चलाते हैं अब सेठों के हलक में हाथ डाल कर हिसाब ले लेंगे। नहीं सोचे न !  लेकिन हिसाब ले लिया कि नहीं। उसी तरह अभिव्यक्ति की आजादी की बात करने वाले कोर्ट ने आर्डर दे दिया कि नहीं। जिस दिन पी एम जी ने नोटबंदी का ऐलान किया उस दिन तो और उसके बाद के कुछ दिनों तक जिनके पास नोट तनहीं हैं उन्हें तो मोदी जी लड्डू गोपाल की तरह प्यारे दिखते होंगे लेकिन जिनके पास काला धन होगा उन्हें वे 11 हजार वोल्ट की तरह खतरनाक लगे होंगे। हलांकि अब मोदी जी और सेठ जी लोग काले धन पर फिफ्ठी - फिफ्टी खेल रहे हैं। भारत बदल रहा है लेकिन हम आम लोगों की भूमिका केवल ताकते रहने की है। अब जब सिनेमाघरों में राष्ट्रगान की बात जरूरी हो गयी है तो राष्ट्र भक्ती के कवियों में एक टीस भरा सपना करवट लेने लगा होगा कि काश अपना भी कोई पौआ ऐसा फिट हो जाता कि मेरे लिखे गीत भी अनिवार्य हो जाते। भाई साहब यह पौआ पौआ की बात है। बांस बल्ली की बात है। वरना, महाराणा प्रताप पालक पराठा खाते हुये ास की रोटी खाने वाले लिख दिये गये, चेतक नाम की घोड़ी का लिंग परिवर्तन करके घोड़ा बना दिया गया और जिल्ले सुभानी , दीने इलाही अकबर को महान लिख दिया गया। खैर अब जब राष्ट्र गान गाना ही होगा और बजाते समय खड़ा होना ही होगा तो हम तो खड़े हो जायेंगे लेकिन ढीले ढाले हमारे वामपंथी भाई उसकी तो वाट लगायेंगे ही, हो सकता है उस ‘पीरियड’ वे सिनेमा हॉल में घुसें ही नहीं। अब सोचिये कि नोटबंदी का कितना बड़ा सामाजिक असर पड़ा है। रेल की टिकट लेने के लिये लाइन आप लगात थे तो अपनी पत्नी को आगे करके टिकट का जुगाड़ लगा लेते थे। अब जबकि नोट बदलने जाते हैं तो दोनों लाइन में खड़े होते हैं। कहीं कहीं तो पुराने जमाने की अदला बदली का सिस्टम भी चल पड़ा है और तो और मंदिरों में चढ़ावे की थाली में दस रुपयों के नोट की जगह पांच सौ हजार के नोट भी दिखने लगे हैं। राष्ट्रगान के बजने से सिनेमारों की फिजां में भार बदलाव नजर आयेंगे। अब जैसे कोलकाता जैसे महानगर में वामपंथी और राष्ट्रवादी दोनो साथ- साथ काफी हाउस में आइडियॉलोजी की ऐसी तैसी करते हैं और फिर सिगरेट सुलगा कमिल्टी प्लेक्स में सिनेमा देखने जाते हैं जहां फिल्म लागी है दंगल। इसमें वामपंथी भाई को सर्वहारा का संघर्ष दिखेगा तो दूसरे को राष्ट्र। अब वाम पंथी अपने साथी से कहेगा यार राष्ट्रगान खत्म हो जाये तो वाट्सएप कर देना मैं आ जाउंगा। आखिर यह विचारधारा का प्राब्लम है न। अब बलिया के किसी गांव के सिनेमा ार में पोस्टर देखने को मिलेगा सेक्स और मारधाड़ की फिल्म साथ में राष्ट्रगान भी। मारधाड़ , एक्शन , रोमांस  , मारधाड़ और राष्ट्रगान से भरपूल फिल्म....। 

जरा सोंचे कविगुरु की आत्मा का हाल। जय हो।

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