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Saturday, December 10, 2016

नोटबंदी : एक आदमी द्वारा करोड़ों पर बरपाया गया कहर

नोटबंदी :  एक आदमी द्वारा करोड़ों पर बरपाया गया कहर 
-हरिराम पाण्डेय
नोट बंदी के बाद मोदी सरकार ने इसके समर्थन तथा विरोध के आकलन के लिये पिछले दिनों स्मार्टफोन का एक एप जारी किया। उस एप के मुताबिक 90 प्रतिशत लोगों ने नोटबंदी का समर्थन किया। इस मतदान की तीखी आलोचना हुई। यह आलोचना बिल्कुल सही थी। नोटबंदी की घोषण के आज तीन हफ्ते बीत गये और लाखो भारतीय उसकी दहशत में जी रहे हैं। यह अजीब किस्म की डिक्टेटरशिप का अहसास हो रहा है कि आप बैंकों में जमा अपना रुपया अपनी इच्छा अनुरुप नहीं निकाल सकते हैं। विमुद्रीकरण नगदी के 86 फीसदी हिस्से को सीधेतौर पर प्रभावित कर रहा है। मतलब कि इस अर्थव्यवस्था में सभी तरह के लेन-देन के 65 प्रतिशत हिस्से को पंगु बना रहा है जो कि मजाक नहीं है। नोटबंदी से नगदी के प्रति एक खास प्रकार का भय पनप रहा है। अगर बैंक से निकाली गई रकम कोई तुरंत खर्च कर देता है तो यह अर्थव्यवस्था के लिए कम नुकसानदायक है और अगर वह इसे दबा कर बैठ जाता है तो ज्यादा नुकसान होगा। चालू वित्त वर्ष में विकास दर में 0.3 से 0.4 प्रतिशत तक गिरावट आ सकती है। अगर यह 7.6 से 7.7 की बजाय 7.1 से 7.2 के बीच रहती है तो बड़ा नुकसान होगा। इसका खमियाजा ज्यादातर गरीबों और कृषि क्षेत्र को उठाना पड़ेगा। देश में नई नकदी की भौतिक उपलब्धता और उसे सिस्टम में डालने की प्रक्रिया धीमी है। असली चिंता कृषि पर दूरगामी असर पड़ने की है। अगर रबी की बुआई प्रभावित हुई तो इसके दूरगामी घातक परिणाम होंगे। ऐसे में जब आपूर्ति सुचारू नहीं हो तो वस्तु विनिमय प्रणाली भी नहीं चल सकती।यह मानसून फेल होने से भी बदतर है। क्योंकि मानसून के धोखा दे जाने पर गरीब किसान अगली फसल तक अपना काम चलाने के लिए औरों से उधार ले लेंगे लेकिन आज वे ऐसा नहीं कर सकते। रबी की बुआई बर्बाद होने की कीमत इंसान को चुकानी पड़ सकती है। किसान अवसाद में आकर खुदकशी कर सकते हैं। यही नहीं देश में 16.5 करोड़ लोगों के बैंक खाते नहीं हैं। सरकार की जन धन योजना ने बहुत लोगों के खाते खुलवाये। लेकिन आधे खातों में कुछ भी नहीं है। जीरो बैलेंस है।  यही नहीं जरा इस नोटबंदी से होने वाली हानि को देखें। देश में 45 करोड़ लोग मजदूरी करते हैं। इनमें केवल 7 प्रतिशत या 3.10 करोड़ लोग संगठित क्षेत्र में हैं और 41.5 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्र में हैं। इनमें आधे तो खेती या निर्माण के काम या खुदरा कामों में हैं। इनमें से अधिकांश लोग दिहाड़ी पर काम करते हैं। इसलिये सरकार ने जिन नोटों को रद्द किया उनमें से अधिकांश  दरअसल चलन में थे, कालेधन के रूप में जमा नहीं थे। हो सकता है अर्थ व्यवस्था पूरी तरह अवरुद्ध ना हो जाय पर बहुत से घर ऐसे हैं जहां इसके कारण चूल्हा नहीं जल पा रहा है। अब कहा जा रहा है कि मजदूरों को चेक से भुगतान करें। अधिकांश मजदूर चाहे जिस शहर में हों वे प्रवासी हैं और खाते या आधार कार्ड वगैरह उनके आवासीय पते पर हैं। अब वे चेक के रूप में कागज का टुकड़ा लेकर क्या करेंगे। यही नहीं अगर किसी तरह जमा भी हो गया तो अपने कार्य स्थल वाले शहर में रुपया कैसे निकालेंगे कि चूल्हा जलेगा। दरअसल नोटबंदी उनलोगों को ज्यादा आघात पहुंचा रहा है जो इसके निशाने पर नहीं थे। बार बार सरकार या खुद प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि कालाधन निकालने के लिये यह कदम उठाया गया है। लेकिन यह हकीकत नहीं है। दरअसल कालाधन क्या है यह समझना जरूरी है। कालेधन का मतलब है वह धन जो लोगों के पास और सरकार के पास नही या सरकार की निगाह में नहीं है। यह बाजार में धन की आवक ज्यादा है और अर्थशास्त्र के सिद्धांतइससे महंगाई बढ़ती है। इसका मतलब है कि रुपया चाहे काला हो या सफेद इससे ज्यादा अंतर नहीं पड़ता। खबर है कि इसके लिये 6 महीने से तैयारी चल रही थी पर उस तैयारी का नतीजा तो नहीं दिख रहा है। जो दिख रहा है तो केवल बेचैनी, अव्यवस्था और असुविधा है। आंकड़ों के मुताबिक देश में विबिन्न बैंकों की 1 लाख 32 हजार 587 शाखायें हैं। बैंकों में कुल जितने खाते हैं उनके आधार पर औसतन 9500 नागरिकों पर एक शाखा है। लेकिन यह सामान्य औसत है। क्योंकि 250 जिलों में केवल सौ शाखायें हैं और गावों में कुल मिला कर 49902 शाखायें हैं जबकि देश की 69 प्रतिशत आबादी गावों में बसती है। बड़े शहरों में जहां कैशलेस लेन देन के कई तरीके हैं गांवों के लाग पूरी तरह नगदी लेन देन पर निर्भर हैं। दूर दराज के इलाकों में बैंकों में भरने के लिये नगदी पहुंचाने के लिये समुचित सुरक्षा व्यवस्था चाहिये वह अलग। यही नहीं प्रधानमंत्री अक्सर यह कहते सुने जा रहे हैं कि इस कदम से वही लोग घबरा रहे हैं जिन्होंने कालाधन जमा कर रखा है गरीब लोग खुश हैं। यह समाज को वर्गों में विभाजित करने का  का घिनौना प्रयास है। नगदी रुपया असल में सम्बंधों को जोड़ता है , लेनदेन को स्वरूप देता है और वायदों की लाज रखता है। समाज के सुचारू रूप से चटलने के लिये जरूरी है कि विनिमय का कोई नगदी माध्यम हो। मोदी जी के इस कदम से लाखों लोगों की गतिविधियां रुक गयीं हैं। अर्थ व्यवस्था बार्टर पर निर्भर होती जा रही है और बार्टर की अर्थ व्यवस्था में कोई गणना नहीं होती। यह कहा जा रहा है कि इस कदम से गरीब खुश हैं पर हकीकत यह है कि खुशी का नकली संदेश समाज में भेजा जा रहा है। जिस तरह दूसरे विश्वयद्ध में हेनरिक गोयबल्स कहा करता था कि ‘एक झूठ को अगर सौ बार बोला जाय तो वह सच लगने लगता है।’ खुशी का यह संदेश कुछ ऐसा ही असर पैदा कर रहा है। देश में पहले से ही अमीरों के खिलाफ थोड़ा असंतोष था अब उस असंतोष को इर्ष्या में बदलने का प्रयास हो रहा है। गरीब की खुशी का प्रचार उनकी इर्ष्या को हवा देने की कोशिश है। कभी आपने सोचा है कि अगर सरकार का यह कदम सही होता तो सरकार खुद प्रधानमंत्री बारबार अपने फैसलों में संशोधन नहीं करते और भारतीय रिजर्व बैंक  लगातार सर्कुलर नहीं भेजता। प्रधानमंत्री को भी यह चाल पिटती नजर आ रही है इसी लिये उन्होंने धन घोषण के नये नियम जारी किये। आधे आधे का। जो लोग आर्थिक कानूनों से वाकिफ हैं वे भलिभांति जानते हैं कि तीस प्रतिशत टैक्स चुकाकर चैन की नींद सोया जा सकता है। जाली नोटों पर इसका असर पड़ेगा यह अभी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि जाली नोटों को लेने से बॅंक बस माना कर देते हैं। ऐसे में हर आंकड़ा गलत होगा।   साथ ही आम नागरिक जाली नोट पहचानते नहीं और बॅंक लेंगे नहीं तो घाटा उसे ही होगा जिसके पास वे नोट होंगे और उसकी गणना कैसे होगी? 

अगर कहें तो कहा जा सकता है कि यह मानव जनित भीषण त्रासदी है। बिल्कुल परमाणु विपदा की तरह। मोदी जी को अत्यंत बदतर किस्म के करप्शन का सामना करना पड़ रहा है। वे नैतिक और आत्मगौरव की बेलगाम तृष्णा से ग्रस्त हैं और उनके साथ के लोग आत्मश्लाधा से पीड़ित हैं।

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