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Sunday, February 12, 2017

सत्ता के बढ़ते अधिकार

सत्ता के बढ़ते अधिकार

सुरक्षा , जिममेदारी और पारदर्श्गिता का शोर सरकार के अधिकारों को अबाध रूप में बढ़ाता जा रहा है। जनता का सरकार से कुछ भी ना छुपा रहे इसके लिये कानून पर कानून बनाये जा रहे हैं, तकनीक पर तकनीक का उपयोग हो रहा है। दूसरी तरफ इसका समर्थन कर हम सत्ता के भीतर झांकने के अपने अधिकार भी गवां रहे हैं। एकाधिकारवादी सरकारें अक्सर ऐसा करती हैं और अक्सर जनता के ना चाहते हुये भी करती हैं। हमारे लोकतंत्र में हमारी सहमति या हमारी पसंद पर रोजाना अंकुश लगाये जा रहे हैं उनपर मनमाने ढंग से नियंत्रण किया जा रहा है। अपनी दुश्चिंताओं से घिरी देश की जनता यह समझती है कि सरकार को अधिकार दे देने से उसका कल्याण हो जायेगा। लेकिन इससे एक ऐसे अनुशासित समाज का जन्म होगा जिसकी लगाम सरकार के हाथों में होगी। देश की जनता सरकार का हुक्म मानने के लिये मजबूर रहेगी। अब हाल की ही एक घटना को देखें। वित्त विधेयक में आयकर कानून की धारा 132 में संशोधन किया गया है ‘कर अधिकारी किसी आदमी, किसी प्राधिकरण या अपीली ट्राइब्यूनल को यह बताने के लिये बाध्य नहीं हैं कि किसी के यहां तलाशी और जब्ती करने के लिये उसके पास क्या उ​चित कारण हैं। ’ हां , यह सही है कि संशोदान में जो तकनीकी पहलू हैं वे अत्यंत जटिल हैं। मसलन, जिसने इसकी मुखबिरी की है उसे बचाये रखना भी इसमें से एक है। सिद्धांत के तौर पर तो यह कहा जाता र्है कि निरुद्देश्य या बेतरतीब ढंग से छापे मारने या तलाशी करने को रोकने के लिये यह किया गया है। बेशक यह सही है पर जरा सोचें कि आय कर अधिकारियों को छापे मारने से पहले अब यह बताना जरूरी नहीं होगा कि किन कारणों से वे ऐसा कर रहे हैं। आयकर छापों को लेकर कई मुकदमें अदालत में हैं और संशोधन के कारणों में दर्शाफया गया है कि कानूनी व्याख्याओं से बचने के लिये ऐसा किया गया है। अब अदालत को यह कहने की इजजत नहीं होगी कि सरकार इसके लिये जिममेदार है। हालांकि पहले भी कानून से बचने के इसमें कई रास्ते थे क्योंकि अकारण जांच अथवा छापे और सकारण छापों को अलग कर पाना पहले भी कठिन था लेकिन अब तो इस नये संशोधन से आय कर अधिकारियों के अदिकार अनाप शानाप ढंग से बढ़ गये। यह इस शक की भी परिपुष्टि करता है कि नोट बंदी के बाद उठी विरोध की लहर को समाप्त करने के लिये यह हथियार तैयार किया गया है। लेकिन , इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि हम कानूनी सत्तावाद के लिये दरवाजे खोल रहे हैं। यही नहीं, इससे भी खतरनाक है आधार कार्ड। कभी यह जनता के सशक्तिकरण का औजार था अब यह जनता की निगरानी का उपस्कर हो गया है। जनता की गोपनीयता खत्म हो रही है।

 

खड़े हुये थे अलावों की आंच लेने

सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गये

 

जब आधार पर बहस चल रही​ थी तो बहस करने वाले तीन समूहों में बंटे थे। कुछ लोग इसे सरकार के निगरानी का तंत्र मान रहे थे, कुछ लोग इसे लेकर उत्साहित थे और चाहते थे कि अर्थ व्यवस्था को ताकत मिलेगी इसलिये इसमें जो व्यक्तिगत निजता के पहलू हैं उन्हें नजरअंदाज किया जा सकता है और तीसरा समूह यह मानता था कि आधार एक चलता फिरता परिचय पत्र है और इस माध्यम से कुछ सरकारी लाभ बी मिल सकते हैं। डाटाबेस की सुरक्षा को लेकर कई तकनीकी पहलू भी हैं। गलत शिनाख्ती या उससे मिलती जुलती कुछ बातें हैं जिसपर विशेषज्ञ बहस कर सकते हैं। यह मान भी लिया जाय कि वे सकल तकनीकी पहलू सही कर दिये जायेंगे तब भी चार ऐसे कारण हैं जिससे कारण जिसके लिये आधार को सत्ता के हाथों में जनता के दमन का तंत्र माना जा सकता है। इसमें सबसे पहला तो यह है कि कौन सी एजेंसी या कौग् सा सेवा प्रदाता आधार की सूचनाएं किसे देगें। यही नहीं, यह कहीं नही लिखा है कि अगर सरकार किसी की शिनाख्त को लेकर गड़बड़ी करती है तो क्या किया जा सकता है। यही नहीं , अब डिजीटलाइजेशन को जो जबरन लादा जा रहा है वह व्यक्तिगत सम्प्रभुता और निजता को खत्म कर रहा है और यह चिंता का विषय है। अज्ञेय ने लिखा है :

 

तुम्हारी गरज हमारी गरज नहीं है

तुम्हारी ताकत हमारी ताकत नहीं है

बल्कि, हमें निवीर्य करने में लगी है

 

इसमें सबसे बड़ी बात जो भय पैदा कर रही है वह है कि कोई भी राजनीतिक दल इसका विरोध करता नहीं दिख रहा है। यहां तक भी अदालतें भी निजता के महलें पर चुप हैं या मामलों को टाल दे रहीं हैं। अदालतों में जो कुछ भी हो रहा र्है उससे भय और त्रास का जन्म हो रहा है। हमारी जनता उन लोगों की निगरानी नहीं कर रही है जिन्हें निगरानी के लिये तैनात किया गया है।

 

गूंगों के देश में भी क्या कोई गीत गुनगुनायेगा

जिंदगी के अक्स में क्या कोई सपने बनायेगा

 

सत्ता के अधिकारों में वृद्दि ओर उसमें पारदर्शिता का अभाव की स्थिति जनता की सहमति से बन रही है। यह सब जनता को समझा बुझा कर किया जा रहा है। सत्ता द्वारा जनता को दिये गये सुविधा के झांसे के आधार पर उसे तैयार किया जा रहा है। जरा ध्यान दें कि सरकार कानून की आड़ में आम जनता के लिये क्या कर सकती है? इस एक जुमले पर सोंचें ‘निर्दोष को डरने की कोई वजह नहीं र्ह। ’  यह आश्वासन का एक वाक्य नहीं है बल्कि सत्तावादी सरकार का प्रलेभन है। हमें भय नहीं है इसका मतलब यह नहीं है कि सरकार आपको निगरानी से दूर कर रही है। जार्ज ऑरवेल की एक पंक्ति है कि ‘खास किस्म के शोर में चेतना को खत्म करना ही आत्म सम्मोहन है।’ जनता पर सरकार का शिकंजा कसता जा रहा है। लोकतंत्र में लोक को गुलाम बनाने के तंत्र विकसित कियो जा रहे हैं। बकौल डा. केदार नाथ सिंह:

 

ज्यादा से ज्यादा सुख सुविधा आजादी

तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में

यह अलग अलग दिखता है हर दर्पण में

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