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Wednesday, February 15, 2017

अपने वोट बैंक के दावेदारों से क्यों मिल जाती है कांग्रेस

अपने वोट बैंक के दावेदारों से क्यों मिल जाती है कांग्रेस

दो दिन पहले उत्तर प्रदेश के चुनाव का पहला चरण समाप्त हो गया। चुनाव के इस चरण में  में कांग्रेस – समाजवादी पार्टी ने बहुत अच्छा मत पाया है ऐसी उम्मीद है। इस चरण के बाद समाजवादी पार्टी के नेता और मुख्यमंत्री के प्रत्याशी अखिलेश यादव ने ट्वीट किया कि ‘गठबंधन ने उम्मीद से अच्छा किया है।’ अखिलेश यादव के इस ट्वीट हालांकि लिखा जरूर है कि गठबंधन ने अच्छा किया है पर उससे जो ध्वनि निकलती है उससे यही प्रतीत होता है कि समाजवादी पार्टी या हमारी पार्टी ने अच्छा किया है। मतदान से पहले यह भी खबरें आयीं थीं कि प्रियंका गांधी अपने परिवार के चुनाव क्षेत्र अमेठी और राय बरेली में चुनाव प्रचार बीच में ही छोड़ सकती हैं।  यहां जो आपने पढ़ा वे राजनीतिक आाचार मनोविज्ञान (पोलिटिकल विहेवेरियल साइकॉलोजी) के तीन सेट हैं। इसके डायनामिक्स की कुंजी के रूप में कांग्रेस सपा के गठबंधन को माना जा सकता है। अब बात यहां से शुरू होती है कि गठबंधन खुद अनिश्चित महसूस कर रहा है और अपने वजूद के लिये संघर्ष कर रहा है। हार या जीत –स्मरण रहे कि गठबंधन के लिये संभावनाएं अच्छी हैं – पर इस चुनाव से अ​खिलेश ने खुद को अकेला खिलाड़ी और बड़ी सख्शियत के तौर पर स्थापित कर लिया। लेकिन अब पंजा का क्या होगा? उम्मीद तो थी कि वह सायकिल के हैंडल को पकड़ेगा पर यहां तो वह चुप चाप बैठ गया। ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी और उसके वारिस का हाल मुगल जमाने के शाह आलम का हो गया है जिसके बारे में कहा जाता था कि ‘सल्तनत-ए – शाह आलम , दिल्ली से पालम।’ कांग्रेस के साथ भी कुछ ऐसा है। एक जमाने में देश भर पर शासन करने वाली कांग्रेस अब 2018 में जब चुनाव लड़ेगी तो सिमट कर केवल एक राज्य कर्नाटक में ही रह रही होगी। इतिहास के छात्र हो सकत है इस हालात की तुलना 18 वी सदी के बक्सर युद्ध से कर सकते हैं। जब एक तरफ इस्ट इंडिया कम्पनी थी और दूसरी तरफ ‘विशाल मुगल सेना।’ आज  वही हालत कांग्रेस की हुई है। कभी यू पी में कांग्रेस का एकाधिकार हुआ करता था आज वह दूसरे का मुंह जोह रही है। यह कैसे हुआ? यहां कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री थे बीर बहादुर सिंह। इतिहासकारों का मानना है कि वे रामजन्म भूमि मसले के ​खिलाफ बढ़ रसे असंतोष को समझ नहीं पाये। उस समय तक पूजा के लिये मंदिर के दरवाजे खोल जा चुके थे पर यह काफी देर हो चुकी थी और वह बहुत थोड़ा था। उत्तर प्रदेश के हिंदू और मुसलमान दोनों नाराज थे और दोनों ने उससे पल्ला झाड़ लिया। इससे हुआ यह कि हिंदू वोट भाजपा के पक्ष चले गये और मुस्लिम मुलायम सिंह केसाथ हो लिये। बचे खुचे दलित वोट कांसीराम के सोशल इंजीनियरिग के छांव में खड़े हो गये। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि कांग्रेस वह घाटा नहुं पूरे कर सकी। केवल एक बार 2009 के लोकसभा चुनाव में उसकी हालत थोड़ी सुधरी और उसे 18.25 प्रतिशत वोट मिले। पार्टी खात्मे की और बढ़ रही है और ऐसंे में यह उसका आत्मघाती कदम है कि वोट बैंक पर निगाह रखने वालों से हाथ मिला ले। कांग्रेस पार्टी को अगर 2019 के चुनाव में विजयी होना है तो उसे दो बातों पर ध्यान देना होगा। जहां भी आमने सामने मुकाबला हो वह भाजपाको पराजित करे और दूसरा कि यदि नही कर सके तो वह मुख्य विरोधी दल के रूप में रहे। अगर इस चुनाव में यू पी में भाजपा हारती बी है तो 2019 में उसे लाभ होगा क्योंकि दोहरे एंटी इंकम्बैंसी का दंड उसे नहीं झेलना होगा। फिलहाल दो ऐसे राज्य हैं जो सदा कांग्रेस के साथ रहे हैंफिलहाल जो सामाजिक हालात हैं कोई बी पार्टी सभी विधान सभा सीटें नहीं जीत सकती।भाजपा को अच्छी तरह मालूम है कि अगर अगले लोकसबा चुनाव में वह 50 प्रतिशत सीटें हार भी जतीं हैं तो तब भी केंद्र में सरकार इसी की बनेगी। अब ‘किसी मूल्य पर भाजपा को रोको ’ वाली नीति कांग्रेस को भारी पड़ रही है। दरअसल कांग्रेस का फोकस गड़बड़ हो गया है। उसके मुख्य प्रतिद्वद्वी समाजवादी पार्टी, बसपा, आप इत्यादि हैं। कांग्रेस ने लगातार इनका साथ देकर अपने वोट र्बैक सत्यानाश कर डाला है और राष्ट्रीय स्तर पर उसका लौटाना संभव होता नहीं दिख रहा है। 

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