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Monday, February 27, 2017

लोकतंत्र पर बढ़ता खतरा

लोकतंत्र पर बढ़ता खतरा
अक्सर देखा जा रहा है कि देश का लोकतंत्र तनाव में है और इसके कारण अक्सर बढ़ते जा रहे हैं। हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि यद्यपि हमारा संविधान स्वतंत्त भारत में बना हैलिकिन इसकी नींव गुलामी के दिनों में रखी जा चुकी थी। अब जैसे कि विधान सभाओं या संसद या अन्य किसी भी लोतांत्रिक संस्था के सदस्य के चयन के लिये मतदान। मत देने का अधिकार भारत (ब्रिटिश) सरकार अधिनियम 1935 के आधार पर है। उस समय वही भारतीय मत दे सकते थे जिनके पास जगह- जमीन हो या टैक्स देते हैं। अब कंस्टीटुयेन्ट असेंबली के लिये मतदेने वालों में भारत के कुल वयस्क लोगों की आबादी के 14 से 16 प्रतिशत ही वोट देने के अधिकारी थे। भारतीय दंड संहिता (आई पी सी ) का मसौदा 1860 में मेकॉले ने बनायी थी। आज भी आई पी सी के बहुत हिस्से मेकॉले के मसौदे से प्रभावित है। मसलन देशद्रोह का कानून। यह कानून सिपाही विद्रोह के 13 वर्ष बाद 1870 में बना था। इसके अनुसार ऐसा कोइै भी अपराध जिसमें सम्राट के खिलाफ अनादर दिखता हो देश द्रोह है। महात्मा गांधी इसे इस तरह के भी कानून का राजकुमार कहते थे। क्योंकि वे जानते थे कि उन्हें इसी के तहत गिरफ्तार किया जायेगा। इस कानून के दुरुपयोग का ताजा उदाहरण दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में फरवरी 2016 में छात्र नेताओं की गिरफ्तारी है। तीन छात्र नेताओं को दिल्ली हाइकोर्ट ने इन आरोपों से मुक्त कर दिया। लेकिन यह सच है कि छात्र या सामाजिक कार्यकताओं पर सेकुलर सरकार या दक्षिणपंथी लोग गलत आरोप लगाते हैं और अन आरोपों के तहत उन्हें फंसाया जाता है। उदाहरण के तौर पर देखें कि दिलली सरकार के 14 मंत्रियों को विगत दो वर्षों में मामूली आरोपों पर गिरफ्तार किया गया। अभी हाल में 22 फरवरी 2017 को दिलली के रामजस कॉलेज में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने बारी मारपीट की और तोड़ फोड़ किये। मार खाने वालों में कॉले​ज के कर्मचारी और छात्र शामिल थे। इसमें कई लोग बुरी तरह घायल भी हो गये। पुलिस वहां तैनात थी पर महिलाओं से धक्कामुक्की करने , लोगों तथा मीडिया को बाहर निकालने एवं कैमरों या मोबाइल्स से फोटो साक्ष्य मिटाने में लगी थी। मानों उनहें उपर से यह निर्देश हो। अबतक पुलिस या गृहमंत्रालय की ओर से कोई उचित खेद प्रकाश भी नहीं सामने आया। पलिस पर कार्रवाई होती भी तो कैसे? क्योंकि साफ दिख रहा था कि उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री और उनके चहेते अमित शाह राज्य के दिलो दिमाग को बांटने में लगे हैं। हालांकि ब्रिटिश राज ने हमारे लोकतंत्र को और भी अत्याचारपूर्ण कानून विरासत में ज्दिया है। भारत छोड़ो आंदोलन के ठीक पहले सरकार ने सशस्त्र सेना विशेष अधिकार अधिनियम बनाया। यह कानून बड़ा विवादास्पद था। इन दिनों वह कानून सशस्त्र सेना (विशेष अ​धिकार) अधिनियम के नाम से विख्यात है। इसका उपयोग जम्मू कश्मीर और मणिपुर में किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल में अपने एक फैसले में इस कानून को लोकतंत्र का मजाक बताया है। क्या विडम्बना है कि हमारे देश के किसी कोर्ट का कोई फैसला किसी बी प्रांत में या देश भर में कानून नहीं बन सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून के बारे में बहुत सटीक व्याख्या है पर इससे न्याय का उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सकता है। यही नहीं लोकतांत्रिक संस्थाएं भी निर्बल होती जा रहीं हैं। यही नहीं जजों की बहाली नहीं हो पा रही है हजारों पद गालली पड़े हैं। चुनाव आयोग को नेता-मंत्री ठेंगे पर रखते हैं। अभी यू पी में चल रहे चुनाव में मोदी जी ने कहा कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वे किसानों के कर्ज माफ करदेंगे। यह खुली रिश्वत है ओर चुनाव आयोग कुछ नहीं कर पा रहा है। यहां तक कि मोदी जी के फेवरिट अमित शाह ने कांग्रेस , सपा और बसपा के प्रथम अक्षरों को मिला कर ‘कसाब’ बनाया है। इससे अजमल कसाब की झलक मिलती है। यह आई पी सी की धारा 153 ए के तहत अपराध है। अब अगर चुनाव आयोग इस पर संज्ञान नहीं लेता है तो वह क्या करेगा? पुलिस और न्याय पालिका को क्या अधिकार हैं? यहां तक कि मोदी जी और उनकी एक मंत्री स्मृति इरानी की डिग्री का विवाद अभी तक नहीं सुलझा जबकि दिल्ली हाइ कोर्ट ने सी आई सी को आदेश दिया कि वह इनकी डिग्रियों का रहस्य खोले।

कुल् मिला कर भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाएं अशक्त होती जा रहीं हैं। जिनलोगों पर इसे मजबूत बनाने का जिम्मा है वे बी इसे कमजोर बनाने पर तुले हैं। यह एक लम्बी प्रक्रिया है जो अर्से से चल रही है। यह किसी एक पार्टी से जुड़ी नहीं है। इंदिरा जी के शासन काल में लगी इमरजेंसी तो इतिहास बन गयी। इस सबके बीच जनता पिस रही है।     

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