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Monday, February 6, 2017

.... और बच्चे कीमत चुकाते हैं

...  और बच्चे कीमत चुकाते हैं

एक समय था जब हमारा देश उपनिवेश था. उस समय मैट्रिकुलेशन पास का मतलब स्कूली शिक्षा का अंत . इसे कॉलेज में प्रवेश का मार्ग समझा जाता था. यह लैटिन भाषा से आया हुआ शब्द था जहाँ इसका अर्थ कॉलेज में प्रवेश मना जाता  है. उस समय सब लोग उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर पाते  थे या  सब में उच्च  शिक्षा हासिल  करने का सामर्थ्य  नहीं था. फिर भी जो लोग करते थे उन के लिए भी  मैट्रिकुलेशन पास करना बड़ा कठिन था. इसमें पास करना बहुत कठिन था और पास नहीं कर पाने वालों की संख्या ज्यादा थी. अतेव कई नौकरिओं के लिए मैट्रिक पास ही उचित योग्यता थी. यहाँ तक कि मैट्रिक  फेल का  भी भाव था. इसका मतलब कि उसने 10 साल स्कूल में गुजारे हैं और कई कठिन परीक्षाओं को पास किया होगा. आजादी के बाद सेकेंडरी शिक्षा  में सुधार नीति न्र्माताओं का मुख्य उद्देश्य था. उनका मानना था कि 10वीं क्लास तक स्कूलों मनें पढ़ना ही उच्च शिक्षा के लिए पर्याप्त नहीं है. वे अपने पूर्वजों की इस बात से सहमत थे कि स्कूलों में 10 साल तक पढ़ना उच्च्क्सह शिक्षा के गाम्भीर्य के लिए पर्याप्त नहीं है. शुरू मैं इसमें एक वर्ष जोड़ा गया और स्कूली शिक्षा 11 साल की हो गयी. इसके तय हुआ कि 12 साल की स्कूली शिक्षा हो .आगे चल कर यह भी एक मृग तृष्णा साबित हुआ. बस इसमें यही हुआ कि छात्रों को अब कॉलेज में जाने के पहले दो बार परीक्षाएं देनी पड़ती हैं. इन दोनों परीक्षाओं में बच्चे भारी तनाव में रहते हैं. गुलामी के दिनों में बोर्ड की परीक्षा शिक्षकों के उदेश्य को भी गढ़ती थी और कैसे पढ़ाना यह भी समझ में आ जाता था. बोर्ड की परीक्षा इस बात की भी परिक्षा ठगी कि छात्र तनाव को कैसे झेलता है. परिक्षा की प्रणाली की साख कायम थी. लोग इसपर भरोसा करते थे. नक़ल का नाम ओ निशान  नहीं था. नीति पत्रकों में इस पर बहुत टीका टिपण्णी थी फिर भी इसकी वैधता कायम थी. विशेष टिपण्णी इस बात पर होती थी कि बोर्ड की परीक्षा केवल इस बात की परीक्षा थी कि परीक्षार्थी की याद करने की क्षमता कितनी थी. इस प्रणाली में सुधार की कोशिश में मामूली कामयाबी मिली. 10वीं क्लास के अंत में हाई स्कूल की परीक्षा चालू रही जबकि 12 वीं में एक और परीक्षा जोड़ डी गयी. व्यावहारिक तौर पर 10 वीं की परीक्षा का उपयोग फकत यही था कि इसके प्रमाण पत्र पर जनम की तारीख लिखी होती है. लेकिन इससे हानि यह हुई कि कई राज्यों में न१०वीन के बाद ही बच्चे पढाई छोड़ने लगे. य६अहीन नहीं दो परीक्षाओं के तनाव से उनपर बुरा प्रभाव पड़ने लगा, यहाँ तक कि जान लेवा असर पड़ने लगा. विगत एक दशक में बोर्ड की परीक्षाओं को वैकल्पिक बनाने दो कोशिशें हुईं. इसके साथ्ज ही परीक्षा को ख़त्म करने के बारे में भी सोचा जाने लगा. प्राथमिक स्तर पर यह तो एक तरह से शिक्षा के अधिकार क़ानून के तहत आ गया. ये दो परीक्षाएं तो हो गयीं और इससे यह पता भी चलने लगा  कि छात्रों का दो स्टारों पर मानसिक विकास कैसे हो रहा है. लेकिन अब ये दोनों समस्याग्रस्त हो गयीं. अब फिर सी बी एस ई 10 वी की परीक्षा लागू  करने जा रहा है. इसपर राज्नीतिक सहमति  भी हो गयी. इसके पीछे तर्क यह दिया गया की जब 10 वीं की परीक्षा नहीं होती है तो बच्चे कठोर परिश्रम नहीं करते. लेकिन यह तर्क बहुत सही नहीं है. बच्चों के फेल करने का डर खत्म होने से पढाई  भी  चौपट  हो जाती है. स्कूली परीक्षा का स्तर गिरने लगा है.अयोग्य शिक्षक भरती होने लगे हैं.  10 वीं क्लास को अंतिम वर्ष नहीं मानने से बच्चों को एक बोर्ड परीक्षा टालने का अवसर मिलने लगा. इसमें कोई हानि तो नहीं है पर मानसिक विकास रुक गया. बोर्ड की परीक्षा का मतलब है कि हजारो लाखों छात्रों को एक मंच पर लाने का प्रयास था. इसमें किसी छात्र की प्रतिभा व्यक्तिगत गुणों  का आकलन नहीं हो पाता  था. साथ ही यह विश्वसनीय भी नहीं थी.  अब फिर वही शुरू होने जा रहा है. इससे एक बार फिर अयोग्य लोगों की बाढ़ आएगी. माध्यमिक शिक्षा का स्तर गिरना चिंता का विषय है. खास कर वैसी स्थिति में जब प्राथमिक स्तर में भी बच्चे ठीक से नहीं पढ़ पाते. सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे बच्चे ठीक से पढ़े वरना साक्षरों की जमात तैयार करने से क्या लाभ.

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