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Tuesday, February 7, 2017

मंथन से गुजर रही है दुनिया

मंथन से गुजर रही है दुनिया

विश्व राजनितिक व्यवस्था एक ऐसे मोड़ पर कड़ी है जहां से पीछे लौटना संभव नहीं है उलटे वह खतरनाक दिशा की ओर बढ़ रही है. दुनिया के लोगों ने गौर किया होगा कि जिस सिन अमरीका के राष्टपति डोनाल्ड ट्रम्प ने सत्ता संभाली उस दिन लाखों महिलाओं ने वाशिंगटन की सड़कों पर प्रदर्शन किया.  यह प्रदर्शन तो एक प्रतिफल था और उस बदलाव का प्रतीक जहां बदलकर दुनिया पहुँच चुकी है. इसके पहले तीन घटनाएं हुईं जिन्हें बदलाव का बिम्ब या विश्व मानस में उदारवादी चेतना का के कम होते होते शून्य  होने का सबूत थीं. दुनिया फिलहाल जहां पहुँच चुकी है वहाँ से अब वह पीछे नहीं लौट सकती है. तीन घटनाओं से इस बदलाव को समझा जा सकता है. इस कड़ी में पहली घटना थी 2014 में नरेंद्र मोदी का चुनाव जीतना , दूसरी घटना थी जून 2016 में ब्रेक्सिट वोटिंग और तीसरी घटना थी नवम्बर में डोनाल्ड ट्रम्प का चुनाव जीतना. ये तीनों घटनाएं  सम्बंधित देशों की स्थापित परम्पराओं से विपरीत थीं. इन तीनों घटनाओं ने विश्वबोध को ध्वस्त कर दिया. दुनिया भर के प्रबुद्ध वर्ग ने इनके समर्थकों को गैर जवाबदेह माना. यही नहीं इसका मनोविज्ञान देखें तो लगेगा की ये सब ग्लोबलाइजेशन के बदबूदार कीचड में फँस जाने के कारण जन्मी निराशा के फलस्वरूप हुईं. अब पूछा जा सकता है कि क्या इसमें स्थापित लोकतान्त्रिक परम्पराओं का उपयोग नहीं हुआ ? यकीनन हुआ , उन परम्पराओं के माध्यम से ही ये बदलाव कायम हुए. लेकिन अमरीका में लाखों महिलाओं का प्रदर्शन और भारत में पुरस्कार वापसी जैसी घटनाएं मजबूरी में उपजे गुस्से का प्रतीक थीं. “ फँस गए “ जैसी मनोदशा का द्योतक थीं वे घटनाएं. उनके लिए इस बसली हुयी व्यवस्था में सांस लेना कठिन लगने लगा था. भारत में इसे असहिष्णुता  (इंटोलेरेंस) कहा गया . यह ऐसा राजनितिक विमर्श था जिसका ओःले सार्वजनिक उपयोग नहीं हुआ था. ट्रम्प ने जिस दिन पद की शपथ ली उस दिन वाशिंगटन में पुलिस वाहनों पर हमले भी हुए और कई बड़े कलाकारों ने ट्रम्प को घूंसे मारने जैसी बातें कहीं. अब सवाल है कि इस बदलाव की व्याख्या कैसे की जाये. वर्तमान वैश्विक व्यवस्था 1648 की वेस्टफेलिया की शांति के जरिये उभरी थी. यह एक ऐसा समझौता था जो तीस साल के युद्ध के उपरांत हुआ था , इन समझौते के आधार पर आधुनिक राष्ट्र राज्यों का जन्म हुआ. भर्ती उप महाद्वीप में “ वसुधैव कुटुम्बकम “ जैसे दर्शन जीवन का अंग बने. ये सब संप्रभुता के सापेक्ष सिध्दांत पर आधारित थे. यही व्यवस्था 1945 से राष्ट्र संघ को सहारा दे रही है. इस व्यवस्था से जो विश्वदृष्टि पैदा हुई उसे लिबरल या उदारवादी कहा जाने लगा. उदारवादी वे हैं जो उमीदों पर आधारित और सपने दिखाने वाली व्यवस्था पर भरोसा नहीं करते. इसी दौर में आया एक और शब्द कंजर्वेटिव या परम्परावादी. ये  निराशावादी हैं पर संस्कृति और परम्परा से गहरे जुड़े होते हैं. वेस्टफेलियन समझौते को छोड़े राष्ट्रसंघ की स्थापना से पहले द्वितीय विश्वयुद्ध में लगभग 6 करोड़ लोग मारे गए थे. प्रथम विश्वयुद्ध में 3.8 करोड़ लोग मारे गए थे. इन नर संहारों से सहज ही उदारवादी नजरिया पैदा हुआ. इसी नजरिये ने विश्वमानस की रचना की. अब ये विचार दिवालिया हो गए. इनसे जुड़े शब्दों के मायने बदल गए. जैसे एक शब्द है सेकुलरिज्म इस शब्द का अर्थ भारत में मुस्लिम तुष्टिकरण हो गया है.अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से उदारवादी वैश्विक दृष्टिकोण का पर्दाफाश हो रहा है. भारत में, इसे समझने के लिए हम राष्ट्रवादी और सेकुलरवादी दो धारणाओं का इस्तेमाल कर सकते हैं.भारतीय उदारवादी वर्ग राष्ट्रवाद को यूरोपीय संदर्भ में ही देखता है,जहां यह संकुचित और आगे चल कर हत्या की ओर ले जाने वाला विचार है. यह दो विश्व युद्धों के दौरान युद्ध,बीमारियों और कुपोषण की वजह से दस करोड़ लोगों की मृत्यु का कारण बना है. चूंकि भारत में राष्ट्रवाद का जो प्रचलित नजरिया है, वह अपनी प्रकृति में यूरोपीय है,इसलिए भारतीय लिबरल बुद्दिजीवी भारतीय राष्ट्रवाद को नीची नजर से देखते हैं और इसी वजह से उन्हें हर वो चीज पसंद आती है जो पाकिस्तानी है,क्योंकि पाकिस्तानी ही वह चीज है जो भारतीय राष्ट्रवाद का उपहास करने का सबसे आसान तरीका हो सकती है. यह भूलना नहीं चाहिए कि बहुलतावाद और सह-अस्तित्व के जिन दो विचारों की पश्चिम इतनी चर्चा करता है उसका वास्तविक उद्गम भारत ही है. ये सिद्धांत हमलों से पूर्व के वैदिक काल के हैं. यही नहीं , भारत के बुद्धिजीवियों एक और शब्द सेकुलरिज्म अपने अर्थ खो चुका है, यह शब्द  स्वभाव से यूरोपीय है जिसे भारत में सांप्रदायिक सौहार्द के संकुचित दायरे में देखा जाता है. मूल यूरोपीय संदर्भ में सेकुलरिज्म का मतलब विचारों का आदान-प्रदान है जो धार्मिक कट्टरपंथ के प्रभाव को सीमित करता है. भारत में यह अपना मतलब पूरी तरह से खो देता है, क्योंकि खुद को सेकुलर बताने वाले भारतीय बुद्धिजीवी हर हाल में इस्लामवादियों की तरफदारी करते नजर आते हैं.भारतीय दर्शन में इसका अर्थ बहुलतावाद है तथा इसे  परिभाषित करने वाले सिद्धांत पूरी तरह भारतीय हैं और वैदिक सभ्यता से जुड़े  हैं.इन दिनों राष्ट्र संघ टूटा हुआ नजर आ रहा है. मोदी और ट्रम्प ऐसे विचारों के लिए बहरी हैं तथा व्यवस्था को सुधार रहे हैं. फिलहाल विश्व इसी सुधार से गुजर रहा है और यह इतनी  जल्दी नहीं होने वाला.

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