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Friday, March 10, 2017

पुलिस सुधार का रहस्य

पुलिस ‘सुधार’ का रहस्य

पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे एस खेहर बड़ी तल्खी से कहा था कि ‘पुलिस सुधार चल रहा है , चल रहा है , कोई आदेश सुनता ही नहीं।’  सुप्रीम कोर्ट ने यह बात तब कही थी जब जब एक वकील ने पुलिस सुधार  जल्दी करने की अर्जी दी थी। यहां इस बात के अल्लेख का मतलब है कि देश की सबसे बड़ी अदालत इतनी लाचार है , उसका क्षोभ समझा जा सकता है। इस हालात से यह निष्कैॡ् निकलता है कि बड़े राजनीतिज्ञ अपने मन से जो चाहें कर सकते हें तथा पुलिस का सही या गलत उपयोग कर अस किये पर लीपा पोती कर सकते हैं। अपनी इच्छा के अनुरूप सुधार कर सकते हैं और चाहें तो सुधार की प्रक्रिया को रोक सकते हैं। पुलिस सुदार के लिये एएक आयोग का गठन 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने किया था। यह पार्टी इमरजेंसी के जुल्मतों से उभर कर आयी थी और काल के जुल्मों को झेला था। बाद में 1996 में उत्तर प्रदेश के पूर्व डी जी पी पकाश सिंह ने एक जनहित याचिका देकर पुलिस के गठन में कई बड़े बदलाव की मांग की। उनकी मांग में पुलिस को स्वायत्तता और उसे काम में ज्यादा व्यावसायिकता की मांग थी।  इन सबके बावजूद पुलिस में सुधार का सिलसिला चलता रहा। इस याचिका के दस वर्ष बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक क्रांतिकारी निर्णय दिया। इस विलम्ब के लिये कोई आलोचना कर सकता है पर यह सोचना जरूरी है कि पुलिस राज्य सरकार का मसला है ओर उससे परामर्श में न केवल समय लगता है बल्कि कठिनाई भी होती है। सुप्रीम कोर्ट ने जो आदेश दिये थे उनमें शीर्ष पुलिस अधिकारियों की पोस्टिंग का वक्त तय हो , उसे एक पद पर कम से कम दो वर्ष तक तो काम करने दिया जाय। इसके साथ ही राज्य सुरक्षा आयोग का गठन किया जाय , जिसमें विपक्ष के नेता भी सदस्य रहें। यह आयोग समय समय पर नीति सम्बंधी निर्देश दे। पुलिस के कानून और व्यवस्था तथा अपराध अनुसंदान एवं रोक थाम  के काकाज में स्पष्ट विभाजन हो । साथ ही पु​लिस अफसरों एवं कर्मचारियों के पदास्थापन के नियमन के लिये बोर्ड का गटन हो। इससे देश भर के पुलिस बल में उत्साह था ओर वे समझने लगे थे कि अब पुलिस के काम काज में राजनीतिक दखलंदाजी बंद होगी और वातावरण सुधरेगा। लेकिन कुछ नहीं हो सका। हर राज्य की सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धार को खत्म करने के लिये अपने अपने तरीके खोज लिया। कहा यह गया कि राज्य का अपना कोई कानून नहीं है अतएव सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा। बस इसी की आड़ में सभी राज्यों ने अपने अपने नियम कानून ढाल लिये ताकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अमान्य किया जा सके। अब इसके आधार पर नये पुलिस अधिनियम आ गये जो कानूनी तौर पर एकदम ठीक- ठीक  थे। लेकिन इनका उद्देश्य सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करना नहीं था। इनके काम में कहीं ऐसा दिखा भी नहीं। इसका नतीजा यह हुआ कि पुलिस पर राजनीतिक मनमानी चलने लगी। इसका एक दिलचस्प उदाहरण है कि किसी राज्य में अगर डी जी पी की पास्टिंग होती है तो बेशक दो साल के पहले उनका तबादला नहीं होगा पर उन्हें पहले ही बिना कोई कारण बताये पद से हटा दिया जाता है। कई राज्यों में तो किसी अफसर को ही डी जी पी का अस्थायी चार्ज दे दिया जाता है। पुलिस कमिशनरों के साथ भी ऐसा ही होता हे। पुलिस इस्टैबलिशमेंट बोर्ड के गठन का भी यही उद्देश्य है कि उसमें राजनीतिक दखलंदाजी बंद हो। लेकिन हुआ उल्टा। डी जी पी की पास्टिंग के लिये मुख्यमंत्री की मंजूरी लेनी पड़ती है। इसका मतलब ही है कि अस पद पर ऐसे लोग लायें जाएं जो उस समय की सरकार की राजनीतिक विचारधारा के समर्थक हों। इसका दो तरफा असर होता हे। एक तरफ तो राजनीति का पुलिस में दखलहोने लगता है दूसरी तरफ बेईमान पुलस वाले राजनीत का झांसा दे कर अपना उल्लू सीधा करते हैं।थाने में आम आदमी का थाना प्रभारी से मिलना कठिन होता है , शिकायत कौन दर्ज कराये। प्रचार किया जाता है कि अपनी शिकायत फोन के फलां नम्बर  पर डायल कर दर्ज करायें पर वहां फोन उठाने वाला नहीं मिलता। थाना प्रभारी से लेकरल कमिशनर या इस पी तक के फोन आम आदमी के लिये उपलब्ध नहीं हैं। पुलस वाले शिकायत सुनते ही नहीं या उसे दर्ज कर दाखिल दफ्तर कर देते हैं।

लेकिन सवाल है कि आखिर जनता पुलिस के इस रवैये पर कब तक चुप रहेगी। जब भी पुलिस सुधार पर बात करने से पहले ये सवाल खुद से जरूर पूछें। ऐसा नहीं कि राजनीति में सब स्वार्थी या बेईमान हैं या पुलिस में सब भ्रष्ट और कामचोर हैं। बहुत बड़ी संख्या अच्छे लोगों की है जो सुनना ओर समझना चाहते हैं। विचारणीय यह है कि पुलिस की यह छवि कब तक बनी रहेगी ओर उसमें सुधार क्यों नहीं हो रहा है?  

 

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