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Tuesday, March 7, 2017

आज महिला दिवस

आज महिला दिवस है

तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था 

आज महिला दिवस है।परंपरा के मुताबिक महिलायों की दशा पर विमर्श होंगे,कुछ सभाएं और गोष्ठियाँ होंगी ,कुछ संकल्प किये जायेंगे और फिर सब कुछ पूर्ववत रह जायेगा। क्यों? यहाँ एक मनोवैज्ञानिक समस्या है। वह यह कि हम सोचते हैं कि महिलाओं की समस्या सरकार हल कर सकती है समाज केवल हालात का रोना रो सकता है और हम वही करते हैं । हम सोचते हैं कि महिलाएं ऐतिहासिक काल से ही पिछड़ी हैं और हमारा विमर्श उसी पर केंद्रित रहता है। हमने यह सोचा ही नहीं कि पौराणिक और प्रागैतिहासिक काल से  आज तक हमारे देश सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा से लेकर, वैदिक काल की अपाला,घोषा, सावित्री और सूर्या जैसी ऋषिकायें, उपनिषद काल की गार्गी और मैत्रेयी जैसी विदुषियाँ , मध्यकाल और पूर्व-आधुनिक काल की अहिल्या बाई, रज़िया सुल्तान, लक्ष्मी बाई और चाँद बीबी जैसी शासक सम्पूर्ण नारी शक्ति को बेहद सुन्दर और सशक्त रूप से परिभाषित करती रही हैं फिर इतने गौरवान्वित इतिहास वाली नारी उन्नीसवीं सदी के आते आते इतनी अधिकारविहीन और निर्भर कैसे हो गयी ? आखिर नारीवाद के तहत नारियों के उत्थान की आवश्यकता क्यों हुई ? दरअसल यह सब वक़्ते निज़ाम की साजिशों का नतीजा है।विदेशी हमलावरों ने भारतीय समाज का बहुत बारीक विश्लेषण किया। उन्होंने यह ताड़ लिया कि अगर भारत पर हुकूमत करनी है तो सबसे पहले भारतीय समाज की जिजीविषा को स्पन्दनहीन बना दो। भारतीय समाज में शक्ति का स्रोत यहां की नारियां थीं। यही कारण है कि हमारी शक्ति की आराध्या दुर्गा हैं।हुकूमतों ने ऐसी साज़िश की कि हम दुर्गा को तो पूजते रहे पर उसके जीवंत स्वरुप को परदे की ओट में भेज दिए। इतिहास अपनी रफ़्तार से चलता रहा और नारियां उसी तेजी से पिछड़ती रहीं । बाल विवाह,बेमेल विवाह ,पर्दा प्रथा ,नारी शिक्षा पर प्रतिबन्ध आदि समाज के लिए कलंक स्वरूप कुप्रथाओं को निरंतर  बढावा मिला। अभी एक दासता हमारे गौरवमय अतीत को कलंकित करने के लिए पर्याप्त नहीं रही और हमारा देश ब्रिटिश आधीनता को भुगतने को विवश हुआ। हर क्षेत्र में शोषित रहते हुए भी अंग्रेजी शासन में कुछ  महान समाज सुधारकों स्वामी दयानन्द ,स्वामी श्रद्धानन्द,ईश्वरचन्द्र विद्यासागर,राजा राम मोहन राय ,स्वामी विवेकानन्द,महात्मा गांधी,भगिनी निवेदिता, सरोजिनी नायडू आदि के प्रयासों से इन कुप्रथाओं पर कुछ पाबन्दी लगी। 
स्वाधीनता  के बाद  संविधान ने सबको लिंग भेद के बिना  समानाधिकार दिए।  सबको समान अवसर प्रदान किये गये  ,बालिकाओं की शिक्षा की समुचित व्यवस्था की गयी ,कामकाजी  महिलाओं के लिए मातृत्व अवकाश की तथा शिशु देखभाल के लिए अवकाश की  व्यवस्था की गयी। गर्भ के समय लिंग परीक्षण दंडनीय अपराध बना दिया गया।  महिलाओं के लिए पंचायतों में स्थान आरक्षित किये गए। स्त्री –पुरुष को नौकरी में समान अधिकार दिए गए।  महिलाओं के लिए विशेष आयोग का गठन किया गया।  नीति निर्माण में उनकी भूमिका तय करने के लिए महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की गयी। आज हर क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों की बराबरी करती नजर आ रहीं हैं। कई क्षेत्रों में तो वह एक कदम आगे भी है।

"एक नहीं दो दो मात्राएँ नर से बढ़कर नारी",

लेकिन आंकड़ों और भाषणों के उस पार एक भयावह दुनिया भी है।उस दुनिया में भी झांकना ज़रूरी है।आज भी लिंग परीक्षण होते हैं और गर्भ में ही लड़कियां मार दी जाती हैं।एक सम्पूर्ण सृष्टि की संभावनाओं को ख़त्म करना कितना शर्मनाक है इसका अंदाज़ा नहीं लगाया न सकता है।  स्वामी विवेकानन्द ने एक बार  कहा था-‘‘कि पहले अपनी स्त्रियों को शिक्षित करो। तब वे आपको बतायेंगी कि उनके लिये कौन से सुधार आवश्यक हैं। ’’ 
यह कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं जितना पहले था।  यूनेस्को की महिला शिक्षा पर  रिपोर्ट  में बंगलादेश हमसे आगे निकल गया है। हमे इस पर गम्भीरता से विचार कर आवश्यक कदम उठाने होंगे। 

आओ मिलकर इंक़लाब ताज़ा तरीन पैदा करें
दार पर इस कदर छा जाएँ कि सब देखा करें

लेकिन विचारणीय यह भी है कि कुछ निहित स्वार्थी समुदाय या समूह नारी स्वतंत्रता को नारी स्वच्छंदता में बदल रहे हैं। स्वछंदता दुर्गुण बढ़ाती है। अधिकार से कर्त्तव्य जुड़े होते हैं। शिक्षा इसीलिए जरूरी है कि हम अपने कर्त्तव्य को समझें। मनुस्मृति में कहा गया है 

यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवताः 
यत्र नार्युस्तु न पूजयन्ते तत्र सर्वा क्रिया अफलाः भवति। 



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