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Sunday, April 16, 2017

बिगड़ रहा है घाटी का मानस

बिगड़ रहा है घाटी का मानस 
नयी दिल्ली में कश्मीर को लेकर एक अजीब अक्खड़पन  दिख रहा है और सारी नीतियां तार - तार हुई जा रहीं हैं। दूसरी तरफ कश्मीर का मानस बदलता दिख रहा है। कश्मीर अब एक गंभीर हिंसक संघर्ष के हालात से एक ऐसी अवस्था में प्रवेश कर रहा जहां का हर फर्द मारने पर आमादा है और फौज व्यवस्था कायम करने में नाकाम दिख रही है।भारतीय राष्ट्रवाद अब वास्तविक समस्या को सुलझाने की बजाय पौरुष प्रदर्शन में ज्यादा दिलचस्पी लेता दिख रहा है। उधर आतंकवाद कट्टरता की सीमा लांघ कर आत्मघाती होता जा रहा है और विदेशी ताकतें इस स्थिति का फायदा उठा रहीं हैं। वहां के नौजवान तो नौजवान बच्चे तकमौत को गले लगाने को तैयार दिख रहे हैं और खुल्लम खुल्ला कहते चल रहे हैं कि इस घुटन से बेहतर मार जाना है। 
   कश्मीर की समस्या की जड़ें बहुत गहरी हैं और इसके लिए कोई एक सरकार दोषी नही है। सबसे बड़ी बात है कि जो भारत सरकार चाहती है और जो कश्मीरी नौजवान चाहते हैं उसमें बड़ा फर्क है और वह फर्क हमेशा कायम रहा है। वाजपेयी जी के शासन काल से अबतक कश्मीर की समस्या को सुलझाने के कई प्रयास हुए। इन प्रयासों का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि इन संझुता प्रयासों के तीन कोण रहे हैं। पहला आतंकवाद को नियंत्रित काना, दूसरा , स्थानीय राजनीतिक ताकतों पर भरोसा करना और आंशिक ही सही सहयोग की राह बनाने के लिए चुनाव कराना साथ ही कश्मीरियत- इंसानियत की दुहाई देना। लेकिन पिछले कुछ महीनों से देखा जा रहा है कि भारतीय नीति के हर अवयव कश्मीर की दिनचर्या को बदलने में असफल हो रहे हैं। सरकार आतंकवाद विरोधी चाहे जो नीति हो वह उल्टा असर डाल रही है। विगत 15 वर्षों का इतिहास देखें तो लगेगा कश्मीर  इस समय आतंकवाद से सर्वाधिक प्रभावित है। हमारी उम्मीद थी कि स्थानीय लोकतान्तरिक प्रक्रिया शिरकत के अहसास पैदा करेगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। श्रीनगर उपचुनाव में काम मतदान भारतीय लोकतंत्र के प्रति भरोसे की भारी कमी का संकेत है। यकीनन हिंसा के भय और आतंकियों की धमकियों के कारण ऐसा हुआ। कुछ देर के लिए यह मान लें कि हिंसा के डर से लोग वोट देने नही आये। लेकिन केवल यही बात नहीं है। यहां एक सवाल पूछा जा सकता है कि वर्तमान सरकार की तीन वर्षों की कोशिशों के बावजूद हैम कश्मीरी मतदाताओं की हिफाज़त नही कर पाए , आखिर क्यों?  हमारी विद्रोह विरोधी रणनीति क्या है? यह सोचना बहुत बड़ी भूल है कि केवल दमन से ही कश्मीर को अपना बनाया जा सकता है। इससे चिंताजनक तो यह है कि जितने भी वहां राजनीतिक पक्ष हैं चाहे वो नेशनल कॉन्फ्रेंस हो या पी डी पी कोई भी असरदार नहीं है। और अब तो ऐसा लग रहा है कि वे कश्मीरियों में आश्वस्ति पैदा करने की दिशा में कुछ कर ही नही पाएंगे। लेकिन सियासत के मंच के अलावा वार्ता की कोई जगह भी नहीं बची है। भरोसा बहुत ज्यादा घट चुका है। इसमें सबसे ज्यादा चिंतित करने वाला ये है कि  दिल्ली में कोई भी इस सच को मानने को तैयार नहीं है। यहां आरोप लगाना उद्देश्य नहीं है। लेकिन राह बदलने की सियासत अपना कर सरकार देश की सेवा नही कर रही है। आतंकियों के दुष्प्रचार से ज्यादा दिल्ली जिस तरह कश्मीर के बारे में बात कर रही है वह ज्यादा खतरनाक है। यहां बदला लेने की मंशा दिखती है, लगता है हैम अपने देशवासियों से बातें नहीं कर रहे हैं। दोनों तरफ से इलाके बंट गए हैं। " कश्मीरियों " ने पंडितों को वहां से खदेड़ दिया और हमारी सरकार उनसे ऐसा सलूक कर रही है कि वे हमारे देश के लोग नहीं हैं। सरकार मूल मसायल की ओर निगाह कर ही नहीं रही है। दूसरी बात है कि ध्यान विचलित करने वाले हथकंडों के हैम शिकार हो जा रहे हैं। दिल्ली यह कहती चल रही है है कि वहां कुछ लोग पत्थरबाजी कर रहे हैं। लेकिन हम यह नही देख पाते कि जिसे पत्थरबाजी कहा जा रहा है वह कश्मीर के प्रति हमारी नीति की नाकामयाबी है। लेकिन दिल्ली खुद से यह सवाल नही कर रही है कि आखिर हालात यहां तक आइए कैसे? एक गंभीर समस्या को इस तरह हल्के ढंग से सोचना भारतीय लोकतंत्र के सामर्थ्य पर उंगली उठाना है। कश्मीर में लोकतंत्र की जो भी पकड़ है वह भी खत्म हो जाएगी साथ ही अल्पसंख्यकों को टारगेट बनाने के जुमलों को बल मिलेगा। गर्मियां शुरू होने वाली हैं और अंतरराष्ट्रीय वातावरण भारत के खिलाफ बन हुआ है। चीन और पाकिस्तान ज्यादा कटु होते जा रहे हैं। भारत अमरीका के करीब जाना चाहता है पर इससे कोई ज्यादा लाभ नहीं होने वाला। हैम उस ओर देख रहे हैं जिस ओर हमे लगता है कि बल प्रयोग कामयाब होगा। हमारे सियासी तंत्र निर्बल हो चुके हैं और कश्मीर में मर मिटने का जनून बढ़ता जा रहा है , वह रसातल मैं जाता दिख रहा है। यह मानना ज़रूरी है कि बंदूक के बल पर अमन हासिल नहीं हो सकता खास कर के तब  जब कि  बंदूक के सामने खड़े लोगों  के मन से मारने का डर खत्म हो चुका हो। अब वक्त आ गया है कि कश्मीर के राजनीतिक दल हकीकत को पहचानें और उसका मुकाबला करें वरना इन गर्मियों में क्या होगा विस्का अंदाज़ा लगाना संभव नही है।

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