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Sunday, April 30, 2017

भाजपा का " अश्वमेध "

भा ज पा का "अश्वमेध " 
उत्तर प्रदेश और दिल्ली निगम चुनावों भारतीय जनता पार्टी ( भाजपा) की भारी विजय के बाद अब लगने लगा है कि पार्टी राजनीतिक रूप में अपराजेय होती जा रही है। 2014 के चुनाव में तमिल नाडु में अन्नाद्रमुक, ओडिशा में बीजद और   बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने उसे मजे की टक्कर दी थी पर इस बार तो वे उतनी ताक़तवर नहीं दिख रही हैं। बस उम्मीद  पश्चिम बंगाल में तृणमूल से  है बाकी से तो कुछ सोचना  ही व्यर्थ है। पश्चिम बंगाल में भी भाजपा मुस्लिम तुष्टिकरण का बवंडर खड़ा कर बंगाली  भद्र लोक समाज को विभाजित करने में लगी है। जहां तक तमिल नाडु का प्रश्न है तो जयललिता की मौत के बाद पार्टी पस्तहाल है तथा ओडिशा में स्थानीय निकायों के चुनाव में भारी पराजय के बाद बीजद नर्वस सी दिखने लगी है। जहां तक अखिल भारतीय पार्टियों का सवाल है तो कांग्रेस का दम फूलता नज़र आ रहा है। स्थानीय नेताओं से गठबंधन के लिए सोनिया गांधी सक्रिय नहीं दिख रहीं हैं। इसासे साफ ज़ाहिर होता है कि राहुल गांधी की संभावनाएं  बहुत अच्छी नहीं हैं। वैसे सोनिया गांधी अब उतनी सक्रिय नहीं रह गईं हैं कि गैर भाजपाई दलों को इकठ्ठा कर 2004 वाली स्थिति तैयार कर सकें। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और बिहार में नीतीश कुमार सरीखे नेता जिन्होंने 2015 में भाजपा को पटखनी दी थी अब खुद अखाड़े के किनारे बैठे हैं। ऐसे में यह आश्चर्यजनक नहीं है कि भाजपा पूर्वी और उत्तर पूर्वी भारत पर निशाना साढ़े हुए है। सबसे बड़ा खतरा तो है कि कांग्रेस विधायक और पुराने कार्यकर्ता पार्टी छोड़ कर भाजपा में शामिल हो रहे हैं , इससे यह संदेश जाता है कि कांग्रेस अब भविष्य नही है। साथ ही जनता को यह समझने का आधार मिलता है कि पार्टी में अब पुरानी वाली बात नहीं रह गयी। उधर भाजपा भी समस्याओं से मुक्त नहीं है। वह व्यावहारिक तौर " वन मैन " पार्टी हो गई है। इसे नगर निगम चुनावों मैं विजय  के लिए भी नरेंद्र मोदी पर ही निर्भर रहना पड़ रहा है। पार्टी के पास दूसरी रक्षा पंक्ति है ही नहीं। यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और लाल कृष्ण आडवाणी जैसे लोग संगठन में प्रयोजनहीन  हो गए हैं। दूसरी मुश्किल है कि अर्थ वव्यवस्था उतनी तेजी से विकासित नही हो रही है कि मोदी जी के विकास एजेंडे पर भरोसा कायम हो सके। अब प्रधान मंत्री ज्यादा गरीबों के बारे में बातें कर रहे है ना कि तीव्र विकास की, जैसा इंदिरा गांधी किया करतीं थीं।
विपक्ष ने तो अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली। मसलन मनमोहन सिंह आर्थिक मोर्चे पर बहुत साढ़े हुए कदम से आगे बढ़ रहे थे पर सोनिया गांधी ने फिजूलखर्च भरे लोकलुभावन उपायों को शुरू कर अपनी सरकार के विकास के एजेंडे को मोदी जी के सामने परोस दिया। बाद में चिदंबरम ने " ठिसुआये" हुए कहा कि हमारी सरकार को " विकास के एक्सलेटर से पैर नही हटाना चाहिए था।"  
उसी तरह केजरीवाल भी साफ सुथरी सरकार के लहीम शहीम वादे के साथ सत्ता में आये लेकिन कुछ नही किये।पार्टी के चलाये जा रहे आंदोलनों के समय जो भ्रष्टाचार खत्म करने के वादे किए थे वे भी पूरे ना हो सके। एडमिरल एल रामदास तक को पार्टी छोड़नी पड़ी। आम आदमी का आम आदमी पार्टी से मोहभंग होने लगा जो दिल्ली नगर निगम चुनाव में साफ दिख गया। केजरीवाल की तरह नीतीश कुमार भी पिट गए। अपने पहले शासन काल में उन्होंने बिहार को " जंगल राज " से मुक्त करा कर उम्मीद पैदा की थी। लालू जैसे नेता को लोग जंगल राज के लिए जिम्मेदार मानते थे और अब उनके साथ ही गठबंधन कर उन्होंने लोगों को फ्रस्ट्रेट कर दिया। लोग समाझने लगे कि यह सब गद्दी  पाने के लिए किया गया है।
अब सवाल है कि भाजपा के अश्वमेध के अश्व को रोकेगा कौन? किसी के पास ऐसा  आशा जनक आर्थिक एजेंडा नहीं है जो नौजवानों में  मोदी जी मेक इन इंडिया और डिजिटल इंडिया जैसे कार्यक्रमो की तरह उत्साह पैदा कर सके।

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