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Friday, April 28, 2017

एक बेदर्द महीना

एक बेदर्द महीना 
कश्मीर आये दिन खबरों में रहता है और खबर भी कुचग ऐसी मानो देश का जिगर कट जाय। वैसे केवल कश्मीर ही नहीं हमारे देश में अक्सर कुछ ऐसी ही  खबरें सुनने को मिलती हैं। अमूमन अखबारों की सुर्खियों में या  तो अक्खड़ राजनीतिक जुमलेबाजी होती  है या   खून खराबे की खबरें होती हैं। ये खबरें कश्मीर से कुछ ज्यादा आ रहीं हैं। खास कर गर्मियां तो कश्मीर के लिए निहायत बेदर्द महीना बन जाती हैं। खून और शोक का महीना बन जाती हैं। 9 अप्रैल को श्रीनगर  संसदीय  सीट के लिए  वोट डाले गए थे। यहां फकत 7 प्रतिशत मतदान हुआ। कश्मीर के किशोर जो संभवतः दुनिया के सबसे ज्यादा सैन्यीकृत इलाके में न केवल जवान हो रहे हैं बल्कि  उनके मन में एक खास तरह की ऊब और पाशविकता भरती जा रही है। देशवासियों ने टी वी पर देखा होगा कि मतदान के दिन कैसे कश्मीरी नौजवानों ने मतदान केंद्रों को घेर रखा था। कुछ पत्थ मार रहे थे।फौज ने भी कार्रवाई की और नतीजतन 8 लोग मारे गए , पैलेट गन्स की फायरिंग से अंधे भी हो गए। मारने वालों में 12 साल का एक लड़का भी था। दूसरे दिन घरों से लाशें निकली , कब्रिस्तान तक का वह सफर कुछ ऐसा दिखता था मानो हम  कोई फिल्म देख रहे हैं। पिछले साल भी कुछ ऐसा ही हुआ था। इस स्थिति का लाभ उस पर के आतंकवादी उठाते हैं और  भारत में उपद्रव करने के अवसर खोजते हैं। गुरुवार को ही कुपवाड़ा में घुस आए आतंकियों  ने  फौज के तीन जवानों  मार डाला। उधर कश्मीर सरकार ने बुधवार को राज्य में 22 सोशल मीडिया पर रोक लगा दी। इरादा था कि अफवाहें ना फैलें । कश्मीर की जनता ने इसे ई कर्फ्यू का नाम दिया है। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग कहा जाता है और डिजिटल इंडिया के इस युग में यहां इंटरनेट पर  पाबंदी एक अजीब घटना है। पाबंदी के आदेश में लिखी गयी भाषा में बार बार राष्ट्र विरोधि शब्द का प्रयोग किया गया था। ऐसे शब्द जान मानस के अहं को आघात पहुंचते ही हैं साथ ही उसे उस तरफ जाने के लिए उकसाते भी हैं। ऐसी स्थिति से आतंकवाद को फैलने का मौका मिलता है। अमरीकी लेखक मार्क जर्मन ने अपनी ताज़ा पुस्त " थिंकिंग लाइक आ टेररिस्ट" में लिखा है कि " आतंकवाद एक तरीका है , क्रियाविधि है और उकसावे में फंसे लोग इसके चक्कर में आ जाते हैं।" 26/11 के हैमल के बाद यह सोचा गया कि भारत में इस तरह का नया वाकया है पर गुरदासपुर के हैमल और कश्मीर के कई हमलों में उसकी झलक साफ दिखती है। सबसे दुखद तथ्य है कि हमारी सरकार वही करती है जो आतंकवादी संगठन उससे करवाना चाहते हैं। कश्मीर में फसाद होता रहे यह उनकी मंशा है और  उस मंशा के पूरे होने का कारण बन रही है। कि दशक से आतांकि देश की जनता को भयभीत किये हुए हैं और इस भय की भीति को समाप्त करने  के लिए जो कदम उठाए जाते हैं वे पर्याप्त नहीं हैं। वे उपाय हमें महफूज नहीं रख सकते। दर असल समस्या क्या है कि हमारे सरकार जनता को यह बताने में कामयाब नहीं है कि वास्तव में झगड़ा किस बात का है और हो क्या रहा है। समस्या यह नही है कि कश्मीर पर हमारी नीति सही नही है बल्कि समस्या है कि सरकार ने जब देखा कि नीति कामयाब नही है तो उसने वहां दोगुनी फौज झोंक दी। यानी गलती बड़ी हो गई और जनता ने इसका विरोध कर इसे और बड़ा बना दिया। मोदी जी की सरकार या  महबूबा की सरकार वही कर रही है जो पिछली सरकारें करतीं आई हैं। नतीजा यह हुआ कि देश की जनता अल्पसंख्यकों को संदेह की नजर से देखने लगी।आतंकवादी संगठन यही तो चाहते हैं कि एकजुटता खत्म हो जाय। आज हमारी आबादी की दिल बनते दिख रहे हैं। अगर आप दुनिया भर के अधिनायक वादी शासन के इतिहास देखेंगे तो पाएंगे कि सब ने भय और हिंसा के माध्यम से सत्ता हथियाई है। इन दिनों एक नया जुमला सुनने को मिल रहा है कि " आतंकवाद बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।" यह एक रेटोरिक है और निशाने पर वही हैं जिन्हें उकसाया जा रहा है। इसासे मानस विभाजित होगा एकजुट नहीं होगा।  इसमें कई खतरे भी हैं । आतंकवाद चूंकि एक कॉन्सेप्ट है इसलिए इसे खत्म नही किया जा सकता है। इस विचार को शुरू से ही गलत स्वरूप दे दिया गया है। जबकि हमारे नेता जानते हैं कि कई कई अलग समूह भी हिंसा से जुड़े हैं , हमारे देश की यह एक बड़ी समस्या है। हम हिंसा की ओर देखते हैं उसके विचारों की ओर नहीं।सरकार सोशल साइट्स पर पाबंदी लगा सकती है विचारों पर नहीं।

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