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Sunday, May 28, 2017

मोदी जी के तीन साल

मोदी जी तीन साल
मोदी प्रबंधन युग के तीन वर्ष गुजर गए। इस बीच " मोदी भक्तों " ने उनकी सफलताओं के कीर्तन गया गया कर यह बताने की कोशिश की कि यकीनन ये तीन वर्ष स्वर्णिम रहे और देश की राजनीतिक अर्थ व्यवस्था में व्यापक सुधार हुआ। लेकिन सवाल है कि क्या ये सुधार हुए हैं? अगर सरकार के प्रमुख आर्थिक आंकड़ों को देखें तो अनुभव होगा कि विगत तीन वर्ष औसत से भी कम उपलब्धि वाले रहे और जिस ' अच्छे दिन ' का मोदी जी ने वादा किया था वह दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहा है। यहां तक कि सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद( जी डी पी) के आकलन की विधि बदल दी ताकि  आंकड़ों के छल से उपलब्धियों की तस्वीर दिखाई जा सके लेकिन तब भी बीते तीन वर्ष बुरे ही दिखे। बहुतों को याद होगा कि सत्ता सम्भहलने बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने  बेहद दृढ़ता से दावा किया था कि अर्थ व्यवस्था आगे बढ़ रही है। लेकिन तीन साल बाद 2016-17 में जो आर्थिक विकास हुआ वह संप्रग सरकार के 2013-14 में हुए  सबसे खराब आर्थिक विकास (6.9%) से भी खराब रहा। जबकि उस दौर में मोदी जी और उनके प्रच्छसरकों ने पानी पी पी कर इस विकास की खिल्ली उड़ाई थी। प्रचार में इस आंकड़े का बुरी तरह इस्तेमाल हुआ और इसी के पर्दे पर यह दिखाने और यकीन दिलाने  की कोशिश की गई कि वे अच्छे दिन लाएंगे।लेकिन आज जो हालात हैं वे बहुत दुखद हैं। संगठित क्षेत्र में इन 3 वर्षों में जितना रोजगार सृजन हुआ वह संप्रग सरकार के आखिरी तीन साल से आधा भी नहीं रहा। श्रम मंत्रालय से हर तीन महीने पर जब- जब  ये आंकड़े जारी किए  जाते  थे तब- तब  सरकार पानी- पानी ह्यो जाती थी। एनडीए सरकार की उपलब्धियों की गिनाने के लिए बुलाये गए प्रेस कांफ्रेंस में जब पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से रोजगार के बारे में पूछा गया तो वे संतोष जनक उत्तर नहीं दे सके। उन्होंने कहा कि " 125 करोड़ लोगों को रोजगार देना असंभव है, स्व रोजगार ही रोजगार का  सबसे अच्छा साधन है। "  अब अमित शाह के इस कथन की व्याख्या की जाय तो यही स्पष्ट होगा कि जनता अपनी रोजी रोटी का जुगाड़ खुद करे( हमारी आशा ना करे)। यह उस पार्टी के अध्यक्ष का कथन है जिसका नेता 56 इंच के सीने को ठोक - ठोक कर रोजगार के अवसर बढ़ाने के दावे कर रहा था। जहां तक रोजगार का प्रश्न है तो सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि हाल के दशक में आधे रोजगार तो स्व रोजगार ही हैं। ये ज्यादातर असंगठित क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश में 4करोड़ 80 लाख नियोजित लोगों में से 85% निजी क्षेत्र में लगे हैं। जहां तक रोजगार की गुणवत्ता की बात है तो ऐसे रोजगार जिसमें कुशल श्रमिकों की ज़रूरत होती है वैसे में,  कौशल विकास मंत्रालय के अनुसार,  महज 5% लोग जुड़े हैं। अब 95 प्रतिशत श्रमिकों की क्या गति होगी यह सरलता से समझा जा सकता है। सच तो यह है कि तीन वर्षों में यह सरकार बेरोजगारी के विकास को धीमी नहीं कर सकी। सरकार ने दावा किया कि 7.5 करोड़ गरीबों को 3.15 करोड़ रुपये मुद्रा बैंक से कर्ज दिए गए हैं ताकि स्वरोजगार का बंदोबस्त हो सके। यहां छल यह है कि इस कर्ज़ का बहुत बड़ा भाग विभिन्न बैंकों द्वारा पहले से दिया गया था और बाद में उस राशि को मुद्रा बैंक में तबादिल कर दिया गया। इसके अलावा जिन लोगों ने मुद्रा बैंक से 5 लाख रुपये कर्ज लिए थे उनमें से अधिकांश पहले से ही स्व रोजगार में लगे थे और उनकी क्षमता दूसरे को नौकरी देने की नहीं थी  इसके अलावा खेती की हालत भी दर्दनाक है। आंकड़ों के मुताबिक इन तीन वर्षों में महज 1.7 % विकास हुआ। मोदी जी का दावा था कि वे किसानों की आमदनी में 50% वृद्धि  कर देंगे अब कृषि मंत्रालय का कहना है कि ऐसा 2022 तक होगा यानी हर साल 10-12% विकास। जो सरकार तीन वर्षों में 1.7 प्रतिशत विकास कर पाई है वह साल भर में 10 प्रतिशत कैसे करेगी यह बात समझ में नही आती। नीति आयोग का कहना है कि विगत तीन वर्षों में किसानों की आमदनी में कोई उल्लेखनीय विकास नहीं हुआ है। और भी नियामक आशाजनक नहीं हैं। नोटबन्दी के वक्त यह आश्वासन दिया गया था कि इसकी अवधि पर होने के बाद बैंकों में रुपये भर्ड जाएंगे और बहुत आसानी से बैंक ऋण मिलेंगें।जबकि इस तिमाही में केवल 4% बैंक ऋण बढ़े हैं जो विगत 60 वर्षों में सबसे कम हैं।
कुल मिला कर मोदी जी तीन वर्ष व्यर्थ गए। वे कुछ भी सकारात्मक बदलाव नहीं कर सके। अब जिन लोगों ने मोदी जी को वोट दिया और जो दुबारा उन्हें देना चाहते हैं वे व्यापक तौर पर सवाल पूछते देखे जा रहे हैं। इतिहास में सभी चमत्कारिक नेताओं के  साथ ऐसा हुआ है और मोदी कोई उनसे अलग नहीं हैं।

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