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Friday, June 16, 2017

राष्ट्रीय अस्मिता के लिये राष्ट्र भाषा जरूरी

राष्ट्रीय अस्मिता के लिये राष्ट्र भाषा जरूरी

हरिराम पाण्डेय

कल रामअवतार गुप्त प्रतिभा सम्मान का आयोजन है। सन्मार्ग के प्रेरणा स्रोत एवं हिन्दी के अनन्य समर्थक स्वं गुप्त के नाम पर आयोजित यह सम्मान मादयमिक के उन बच्चों को दिया जाता है जिन्होंने हिंदी विषय में श्रेष्ठ अंक प्राप्त किये हैं। आज के इस काल में जब अंग्र्रेजी को ज्यादा प्रश्रय दिया जा रहा है उसमें हिंदी की बात करना या हिंदी में बात करना अभिभावकों के अनुसार बच्चों में हीनभाव पैदा करता है। ऐसे में लोग पूछते हैं कि हिंदी पढ़ने के लिये बच्चों को सन्मार्ग वाले क्यों प्रोतसाहित करते हैं। ​हिंदी या मातृभाष का क्या प्रभाव होता है इसपर बात आगे बढ़ाने के पहले एक दिलचस्प घटना का जिक्र करना जरूरी है। यह घटना उस समकि है जब सोवियत संघ में भारत की पहली राजदूत विजय लक्ष्मी पंडित ने रूस के राष्ट्र पति जोसेफ स्टालिन को अपने कागजात दिखाये। स्टालिन ने उनसे पूछा – यह किस भाषा में है। उत्तर मिला- अंग्रेजी में है। स्टालिन ने कहा - अच्छा तो यह आपकी भाषा है। नहीं

तो यह आपकी भाषा नहीं है तो क्या मेरी है? भारतीय राजदूत ने कहा – नहीं।

स्टालिन बड़ी तीखे लहजे में कहा-तो आपको शर्म नहीं आती। आप एक ऐसी भाषा में अपने कागजात मुझे पेश कर रहे हैजो ना आपकी है ना मेरी।…. आप यहां मेरा सहयोग मांगने आयीं हैं और ठगों और लुटेरों की भाषा में बात कर रहीं हैं। इसके बाद भारतीय दूत की स्टालिन से कभी मुलाकात नहीं हो सकी। उस दौरान रूस में एक लतीफा प्रचलित था कि ‘‘हम लोगों ने जब भारतीय राजदूत से पूछा कि आपकी भाषा क्या है तो उसने कहा कि उसे मालूम नहीं…उसकी सरकार अभी भी कोशिश कर रही है पता लगाने की कि उनकी भाषा क्या है और तब तक अंग्रेजी में काम चलायें।’’

 कैसी विडम्बना है कि भारत सांस्कृतिक तौर पर खुद को विश्व गुरू कहता लेकिन क्या कोई गुरू या शिष्य कभी यह पूछता है कि ‘‘क्या यह नैतिक तौर पर सही है कि आदरणीय गुरूजनों के बीच सम्बंध एक ऐसी भाषा में होता है जो ना गुरू की है ना शिष्य की, ना राज्य की है ओर ना देश की जो ना किसी वैज्ञानिक प्रक्रिया से तय है ना लोकतांत्रिक प्रक्रिया से। एक ऐसी भाषा में यह सब होता है जो जबरन और दोखे से लाद दी गयी है।’’ इसके बाद ब्रिटिश शोधकर्ता बड़े गर्व से कहते हैं कि ‘भारत में पदार्थ पर कोई चिंतन है ही नहीं।’ यहां अंग्रेजी को सरताज बनाने वालों से एक सवाल है कि ‘वैज्ञानिक संस्थानों को अंग्रेजी में चलाने का देश के सामाजिक ताने बाने पर क्या प्रभाव है?’ उन बच्चों के मन पर अंग्रेजी का क्या प्रभाव होता है जिनकी भाषा अंग्रेजी नहीं है? बोलचाल के लिये कहा जा सकता है कि उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है , लेकिन यह बी तो कहा जा सकता है कि उन छात्रों का कोई दिलोदिमाग ही नहीं है। सवाल है कि भारत कितने दिनों तक अपने वैज्ञानिक संस्थानों को अंग्रेजी में चलायेगा?दुनिया भर में अंग्रेजी का क्या भविष्य है? भारत की भाषाओं पर अंग्रेजी में चलने वाले वै3ानिक संस्थानों का क्या असर है? अंग्रेजी बोलने वाले भारतीयों का अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक प्रभाव क्या है? इन प्रश्नों का देश के सामाजिक-वैज्ञानिक संदर्भ में क्या कोई स्थिति पत्र है? क्या हमारे देश मेंअंग्रेजी बोलने या पढ़ने वाले लोग मूल अंग्रेजी जानते हैं और कितने लोग यह बता सकते हैं कि यह अंग्रेजी किस काल से मिलती है। क्या कोई यह बता सकता है कि अंग्र्रेजी ग्लोबल भविष्य क्या होगा और इस ध्शि में हमें क्या कदम उठाने चाहिये? क्या कोई भी समाज वैज्ञानिक है जो भाषा के अंतरराष्ट्रीय प्रभाव पर अध्दयन कर रहा है और अगर कर रहा है तो उस बारे में उसकी राय क्या है? अगर ऐसा नहीं है तो हमारे पास कोई ऐसा अंग्रेजी का विद्वान नहीं है जो हमारे सामाज के काम आ सके। देश में लगभग सभी विश्वविद्यालयों में अग्रेजी के विभाग हैं। उनमें से कोई भी यह नहीं बता पायेगा कि देश में अंग्रेजी का उद्भव और विकास क्या है। अधिक से अधिक कहेंगे कि ्यह एंग्लो- सैक्सन हमले के बाद यह सब हुआ। शिक्षण के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को लागू किये जाने के बारे में ब्रिटिश कौंसिल की एक रपट में कहा गया है कि ‘स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाने के लिये और अंग्रेजी माग्ध्यम से शिक्षा देने के लिये स्थिति पत्र मौजूद है पर भारत के मामले में खास कर उच्च शिक्षा में ऐसा कुछ नहीं है।’ मतलब कि भारत में उच्च शिक्षा को लेकर कोई ​चिंतन ही नहीं है। क्या किसी शिक्षाविद् ने ऐसा सोचा है कि भारत में उच्च शिक्षा के संदर्भ में ऐसा को पत्र या चिंतन क्यों नहीं है? क्या हम बगैर किसी चिंतन के अपनी उच्च शिक्षा को संचालित कर रहे हैं। अगर नहीं तो चिंतनहीन शिक्षा का अर्थ क्या है?

राष्ट्रभाषा जरूरी क्यों?

राष्ट्रभाष एक राष्ट्र की पहचान का प्रतिनिधित्व करती है।यह राष्ट्रीय एकता का संचालक ऊर्जा है। हिंदी को सांविधानिक दर्जा हासिल है लेकिन क्या हिंदी में चिंतन को बढ़ावा दिया जा रहा है? अंग्रेजियत बड़प्पन की पहचान हो गयी है या बना दी गयी हे। देश की सरहदों, मुद्रा, राष्ट्रध्वज के बाद अगर कोई चीज देश को सममान दिलाती​ है तो वह उसकी अपनी बाषा।बेशक राष्ट्रभाषा अपने देश की स्पष्ट पहचान है। भाषा एक संवेदनशील मसला है। किसी भी समुदाय या राष्ट्र को समझने के लिये उसके बीतर यानी उसकी संस्कृति में प्रवेश करना होता है और असके लिये सबसे जरूरी है उस देश की भाषा को समझना और बोलना। जबतक उस देश की भाषा को अच्छी ततरह समझना ओर बोलना नहीं आयेगा तब तक उसकी संस्कृति के पहलुओं को समझा नहीं जा सकेगा।​ किसी राष्ट्र की भाषा उसकी जनता में एकता का कारक होती हैऔर सम्मान दिलाती है। इतिहास गवाह है कि हर बड़े नेता ने अपने देश की भाषा को शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया है और यह भी इतिहास में वर्णित है कि किसी राष्ट्र की भाषा को दबा कर ही उस पर शासन किया जा सकता है यही नहीं भाषा के आंदोलन ने राष्ट्र को भंग किया है। बंगलादेश के उदय का भाषा ही कारण बना था।

राष्ट्रभाषा के अस्तित्व के बगैर राष्ट्र और राष्ट्र की सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने के प्रयास के विस्फोटक परिणाम होते हैं। इन परिणामों की तीव्रता कई क्षेत्रों में महसूस की जा सकती है। राष्ट्रगान और वंदे मातरम का विरोदा के मूल में यही परिणाम है। बात बात पर संविधान का हवाला देकर अशोभनीय व्यवहार करने वाले नेताओं ने कभी राष्ट्रभाषा का मसला उठाया ही नहीं। वे राजबाषा की बात कहके यह कहने लगतने हैं कि भाषा बड़ा संवेदनशील मसला है। यहां यह पूच जा सकता है कि क्या इस देश को संवेदनहीन समाज की जरूरत है। कुछ बुद्धिजीवी भाष के प्रेम को कोरी भावुकता कहते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि हर तरह के जंग में चाहे वह आर्थिक समर हो या सैन्य युद्ध सबमें नारे प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से देश एक सूत्र में बंधता है तो यह भावुकता लाद दी जानी चाहिये।       

किसी देश की भाषा उस देश की जनता को अलग पहचान देती है।अगर कोई दूसरे देश की बाषा को बोलता समझता है तो वह उसकी अतिरिक्त योग्यता मानी जाती है। इतिहास में इस बात का भी उल्लेख है कि सैकड़ों देशों की अर्थ व्यवस्थाएं खूब चमकी हैं लेकिन उन्होंने अपनी भाषा का अनादर नहीं किया है। चीन, ईरान और जर्मनी इसके स्पष्ट उदाहरण हैं।

यह जान कर हैरत होगी कि विगत 5 हजार वर्ष में कोई भी ऐसा राष्ट्र नहीं रहा है जिसकी अपनी भाषा ना हो। बेशक दूसरी भाषाओं के लिये भी वहां जगह होती है। लेकिन भारत एकमात्र ऐसा देश है जिसकी अपनी भाषा नहीं है और जिसे भाषा बनाने की कोशिश की जाती है उसे पूरे सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता है।

ये स्कूली बच्चे ही तनो इस देश का भविष्य हैं और उन्हें बाषहा के प्रति जागरूक करने का सन्मार्ग प्रयास कर रहा है। यह प्रयास इस विश्वास के साथ किया जा रहा है कि एक दिन कामयाबी जरूर मिलेगी।      

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