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Monday, July 17, 2017

कश्मीर में मौके लाभ अठाये सरकार

कश्मीर में मौके लाभ अठाये सरकार

 

केसर की क्यारियों में खून बह रहा है और वह बी कुछ इस तरह कि जब भी सुरक्षा बलों की गोलियों से कोई जिहादी या आतंकी मरता है या उनकी गोलियों से एक सैनिक मरता है तो ऐसा महसूस होने लगता है कि यह तो होने वाला ही था, यह तो होता ही रहता है। कोई हैरत नहीं होती है। खबरें डरातीं नहीं हैं , उत्तेजित नहीं करतीं हैं, गुस्सा पैदा नहीं करतीं हैं। इस पर जो प्रतिक्रियायें  होतीं हैं या जो कार्रवाइयां होतीं हैं वह वही रहतीं हैं जो पहले से कही या की जाती रहीं हैं। लगता है कि कश्मीर में जो हो रहा है वह एक दम रूटीन है। वही एक जिहदी के मारे जाने के बाद उसकी अंत्येष्टि में भारी भीड़, उसके बाद वही हमलों की​ घटना। पिछले 18 सालों में, पांच आतंकवादी हमलों में कम से कम 52 अमरनाथ तीर्थयात्री मारे गए हैं। 1 अगस्त, 2000 को एलटीई आतंकवादियों द्वारा सबसे घातक हमला किया गया था। उस हमले में पहलगाम में 21 तीर्थयात्री मारे गए थे।वर्ष 2015-16 की तुलना में वर्ष 2016-17 में नागरिकों, सुरक्षाकर्मियों और आतंकवादियों की मौत में 45 प्रतिशत वृद्धि हुई है। एक वर्ष में यह आंकड़े 216 से बढ़कर 313 हुए हैं। पिछले पांच वर्षों में यह साल-दर-साल की उच्चतम वृद्धि है। नागरिकों की मौत में 164 प्रतिशत  वृद्धि हुई है। आंकड़े वर्ष 2015-16 में 14 थे, बढ़ कर वर्ष 2016-17 में 37 हुए हैं। जबकि इसी अवधि के दौरान आंतकवादियों की मौत में 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वर्ष 2016-17 में आतंकवादी मौत के आंकड़े 178 हैं। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए -2) के दूसरे कार्यकाल के आखिरी तीन साल की तुलना में मई 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार (बीजेपी) के सत्ता में आने के बाद जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद से संबंधित मौतों में 42 प्रतिशत  वृद्धि हुई है।

कट्टरपंथी चाहते हैं कि ​जितने मारे गये उससे और ज्यादा लोगों को मार कर बदला लिया जाय और उदार विचार वाले कहते हैं बात कर के मामला सुलझाया जाय। अभी हाल में अमरनाथ के तीर्थ यात्रियों पर आतंकी हमलों की ही बात लें, जो कहा गया या किया गया वह पहले किसी हमले से अलग तो नहीं था। वही सब बातें , वही सब काम , वही जुमले,.वही मर्सियाह और वही अरण्यरोदन जो हर हमले या मौत के बाद होता है। नया कुछ नहीं। अलबत्ता अमरनाथ यात्रियों के संदर्भ एक बात नयी हुई कि इस बार हुर्रियत ने उस घटना या कहें उस हमले की निंदा की है और वह भी खुल्लम खुल्ला। हाल की घटना से एक बात समझने योग्य है कि जिहादी और हुर्रियत एक नहीं हैं। जिहादी बाहरी हैं और हुर्रियत इसी देश के हैं, कश्मीर के हैं और ज्यादा स्वायत्तता चाहते हैं। उनकी आजादी का अर्थ भारत से टूटना नहीं है। इस घटना को लेकर कश्मीर में ऐसी प्रतिक्रिया हुई कि , जो कश्मीर से दूर भारत के अन्य भाग में रहते हैं वे इसे गद्दारी समझ बैठें। लेकिन अगर इस निंदा को आतंकवाद के मनोविज्ञान के नजरिये से देखें तो इतिहास में ऐसी घटना मिल जायेगी। नगाओं के मामलं को ही देखें। ब्रिटिश भारत में वे खुद को उस उपनिवेश का हिस्सा मानते ही नही नहीं थे अतएव आजादी के बाद उनहोंने नेहरू से कहा कि उन्हें भारत से मुक्त कर दें। नेहरू ने मना कर दिया। इसके बाद और  नगाओं में जोर आजमायश शुरू हो गयी। दशकों तक मतभेद चला। नगाओं के नेता फिजो लंदन में बैठ कर आंदोलन को संचालित करते थे। लम्बे संघर्ष के बाद शिलांग में नगाओं और भारत सरकार में समझौता हुआ। समझौते की खबर इतनी आश्चर्यजनक थी कि कई नेताओं को विश्वास  ही नहीं हुआ। नगाओं का वह आंदोलन भारत का राज्य के प्रति फोकस बढ़ाने लिये था। यह कश्मीर की तरह भावनाओं का उत्ताल पैदा करने के लिये नहीं था अतएव सही मायनों में  भारत से आजाद होने के लिये नहीं था जबकि कश्मीर में जो इनदिनों हो रहा है वह आजादी की मांग से भीतर ही भीतर जुड़ा है और उसे हवा देने वाले ततव भारतीय या कश्मीरी​ नहीं हैं।

अमरनाथ के यात्रियों की हत्या की घटना के बाद हुर्रियत और जिहादियों के बीच जो दरार पैदा हुई है उसका भारत सरकार को लाभ उठाना चाहिये। जिहादी भारतीय नहीं हैं जबकि हुर्रियत भारतीय हैं। अब राज्य सरकार को चाहिये कि वह हुर्रियत नेताओं की हिफाजत करे ताकि उनमें आश्वासन का बोध पैदा हो। हो सकता है कि कई लोगों को इस सुझाव से आपत्ति हो पर यदि हुर्रियत भारत या कश्मीरियत के पक्ष में हैं तो उनके भीतर जिहादियों से बचने का आत्म विश्वास पैदा होना जरूरी है। विश्वास के इसी अभाव से कश्मीर हिंसा के दलदल में फंस गया है। लोग घटनाओं को पार्टी लाइन के हिसाब से देखने लगते हैं।और असी आधार पर निंदा प्रशंसा होती है। घटना के दो ही दिन के बाद यह भी खबर आयी कि यह भाजपा ने खुफिया सूत्रों की मदद से करवाया है। दुनिया भर में इन दिनों संकीर्ण सोच को बढ़ावा मिल रहा है। इससे ध्रुवीकरण बढ़ रहा है। अभी हम जिस दलदल में फंसे हैं उसमें ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिलना खतरनाक है।

 

 

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