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Monday, August 14, 2017

आज भी जारी है वह आन्दोलन

आज भी जारी है वह आन्दोलन

 

अरुण यह मधुमय देश हमारा

जहां पहुँच अनजान क्षितिज को

मिलता एक सहारा .

हेम कुम्भ उषा सवेरे

भारती ढुलकाती सुख मेरे

जग कर रजनी भर तारा.

आज 15 अगस्त है. आज  से सत्तर साल पहले  हमारा भारत आजाद हुआ था. आधी रात को मिली उस आज़ादी के क्या सपने थे और उन सपनों को पूरा करने में हम कहाँ तक सफल हो सके यह तो राजनितिक विश्लेषण का विषय है पर एक देश के रूप में हमने खुद को कितना जाना है और एक देश या राष्ट्र से हम क्या समझते हैं. आज़ादी के बाद विकास , सफलताएं, असफलताएं इत्यादि शासकीय कर्म हैं और यह सरकारें करती आयी हैं. इसका लेखा जोखा लक्ष्य से भटकाव है. आज सरकार के विरुद्ध कुछ भी बोलने वाले को इस समय सोशल मीडिया में सीधे राष्ट्र द्रोही कह दिया जा रहा है , हालांकि उन्हें मालूम नहीं कि राष्ट्र क्या है , देश क्या है? विश्व विद्यालय के छात्रों और मीडिया कर्मियों से भी यह प्रश्न पूछा जाता है कि देश है क्या? जब देश कि अवधारणा ही नहीं मालूम तो यह कैसे महसूस किया जय कि आज़ादी क्या है. क्या कुछ कानूनों के गुच्छे और बदली हुई सरकार ही स्वतन्त्रता है? या इससे कुछ अलग है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर हम भारतियों को जानना चाहिए तभी हम जान पायेंगे कि आज़ादी है क्या. आज हमें जिस राष्ट्र के बारे में अकादमिक बताते हैं वह प्रथम विश्वयुद्ध के काल में यूरोप के एक भाग में “ एक राज्य, एक राष्ट” के रूप में पनपा और धीरे  धीरे वह एक वट वृक्ष बन गया और उसकी छाया ने समस्त मानवीय चेतना को ढँक लिया. वहाँ राष्ट्र कि पहचान व्यक्ति के आत्मनिष्ठ अहम् के रूप में थी जिसकी एनी सत्ताओं के सन्दर्भ में होती थी. कभी किसी के साथ कभी किसी से अलग. लेकिन भारतीय मनीषा में एक राष्ट्र कि बनावट के पीछे एक संस्कृति कि बुनावट छिपी रही  है और इसकी  संस्कृति का स्वरुप उन बिम्बों द्वारा निर्धारित होता है जो एक भारतीय  अपने बारे में संजोता है. हिन्दू धर्म में ईश्वर की  कल्पना मनुष्य के रूप में की गयी है और इसी कारण  राष्ट्र  की परिकल्पना में भी एक भौतिक बिम्ब है. जिन संस्कृतियों के बुनावट में ईश्वर निराकार है  वे इसे समझ नहीं पाते और इसी मनोवैज्ञानिक कमजोरी का लाभ उठाकर कुछ लोगों ने देश को विभाजित कर  दिया गया. चाहे जो भी ऐतिहासिक दबाव हों राष्ट्र की  यूरोपीय अहंकेन्द्रित अवधारणा एशियाई और अफ़्रीकी क्षेत्रों में भी फ़ैल गयी.जबकि यूरोप से बाहर ऐसी संस्कृतियाँ हज़ारों साल से जीवित रहीं है जिन्हें अपनी जीवन पद्धतियाँ , अस्मिता और आत्म गौरव कि रक्षा के लिए किसी राज सत्ता का मुंह नहीं जोहना पडा है. यदि नये संस्कृतियाँ हज़ारों साल से जीवित रहीं हैं तो किसी आतंक या किसी सत्ता के बलप्रयोग पर नहीं बल्कि उन सहज और जीवनदाई विश्वासों के कारण  जो उन्हें भूमि के एक खंड पर रहने कि अर्थवत्ता और सुरक्षा प्रदान करते हैं. भूमि का यही कांड राष्ट्र है, देश है. वह पवित्र और महत्वपूर्ण इसलिए  है कि वह उसे बाकी विश्व से जोड़ता है इसलिए नहीं कि वह उसे अलग कर  राष्ट्रीय भूगोल कि सीमाओं में आबद्ध  करता है. इसीलिए उन विश्वासों के घेरे में जिस चेतना का विकास होता है वह न  शुद्ध रूप से राष्ट्रिय हैं ना भौगोलिक. वह सीधे अपनी प्राणवत्ता उन लगावों  से प्राप्त करती है जो व्यक्ति के अहं का विस्तार ना हो कर  अपने और दूसरों के बीच एक साम्य की  मर्यादा निर्धारित करती है.  विश्वासों कि इस मर्यादा के परिवेश में ही एक मानव समूह की  जीवन धारा , लय और लौ रूपायित होती है. यही उसकी सांस्कृतिक चेतना का मुख्य प्रेरणा श्रोत भी है और राष्ट्र भी है. यही तथ्य भारत को आधुनिक दुनिया के राष्टों से अलग कर देता है. आधुनिक युग में भारतीय सभ्यता पश्चिम के लिए एक पहेली है, एक विरोधाभास है. यदि वह यूनान और मिस्र कि तरह एक मृत सभ्यता होता तो कोई बात नहीं थी. उनके लिए कठिनाई इस बात कि है कि इतिहास के असंख्य प्रहारों के बावजूद भारत जीवित रहा . इसके जीवित रहने का कारन केवल यह था कि भारत में आदि जीवन के दर्शन सूत्र केवल पोथियों में नहीं समकालीन स्मृतियों  में प्रवहमान हैं. सपने कि तरह हर स्मृति कि अपनी बिम्ब भाषा होती है जो कहीं से भी उभर सकती है, उत्प्रेरित हो सकती है - वैदिक ऋचाओं  से ,  पौराणिक कथाओं से या महाकाव्यों  से. भारत ऐतिहासिक स्मृति नहीं है वह आज भी हर भारतवासी के जीवनप्रणाली  के कार्यों – अनुष्ठानों में मेहँदी कि तरह रची बसी है. इसीलिए एक भारतीय का सभ्यता बोध उसे एक ऐसी समग्रता देता है जो धर्म , राजनीति और आधुनिक राष्ट्रीयता के फ्रेम में फिट नहीं हो पाता. अंग्रेजों कि गुलामी के दो सौ वर्षों में हमने अपनी आत्मा पर कई घाव झेले हैं केवल इसी उम्मीद पर कि कभी न कभी वे जख्म भरेंगे और इसी उम्मीद पर स्वतन्त्रता आन्दोलन आरम्भ हुआ था . वह केवल सत्ता बदलने का नहीं बल्कि अपने समस्त सभ्यता बोध को अपने जीवन प्रतिष्ठित करने का आन्दोलन था जो आज 70 वर्षों के बाद भी जारी है.

जहां शिवा ,राणा , लक्ष्मी ने देशभक्ति का मार्ग बताया

जहाँ राम , मनु, हरिश्चंद्र ने प्रजा भक्ति का सबक सिखाया .

वहीँ पुनः उनके पथगामी , बनकर हमें दिखाना है.

भारत को खुशहाल बनाने , आज क्रांति फिर लाना है.        

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