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Wednesday, September 13, 2017

हिंदी हमारे देश का आत्मसम्मान

हिंदी हमारे देश का आत्मसम्मान है   

हरिराम पाण्डेय

भाषा किसी भी राष्ट्र की  पहचान ही नहीं उसका गौरव भी है और उस राष्ट्र के वासियों का आत्मसमान भी.आज हमारे देश में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने वाले स्कूलों की बाढ़ आयी हुई है और उसमें पढने वालों की  संख्या  लगातार बढ़ रही है. इन स्कूलों में बच्चों से यह ताकीद की जाती है कि वे सदा अंग्रेजी ही बोलें  , यहाँ तक कि घरों में भी माँ – पिताजी से भी. एक विदेशी भाषा में घरेलू बात चीत जहां आत्मीयता ख़त्म होती है वही संस्कार हीनता भी जन्म लेती है. ऐसे विद्यालयों से शिक्षित बच्चे अगर माँ – बाप का अनादर करें तो इसमें क्या आश्चर्य? उचित तो यह  है कि बच्चे घरों में हिंदी ही सीखें , इससे कम से कम आयातित संस्कार हमारे जीवन में तो प्रवेश नहीं करेंगे. स्कूल चाहें उन्हें जितनी अंग्रेजी सिखाएं, यह उनकी जिम्मेदारी है. उलटे स्कूल बच्चों को प्रवीण बनाने कि जिम्मेदारी घरों पर डाल देते हैं. ऐसे स्कूल  खुद तो कामचोरी करते हैं और साथ ही बच्चों को हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति का गद्दार तैयार करते हैं.  हमारे देश का सामाजिक गठन यूरोप की तरह नहीं है जहां जैविक माँ बाप ही माँ बाप होते हैं और अंकल आंटी के रिश्ते स्पष्ट नहीं होते. हमारे देश में हर सम्बन्ध ना केवल पूरी तरह स्पष्ट होता है बल्कि उनमें अपनी ख़ास गरिमा होती है तथा बच्चो के प्रति उन संबंधों की विशिष्ट जिम्मेदारी होती है. स्कूलों की  जिम्मेदारी है बच्चों को  समाज के जिम्मेदार और सुसंस्कृत नागरिक तैयार करना ना कि अपने इतिहास और संस्कृति से कटे नौज़वानो का उत्पादन करना. यूरोप के बड़े से बड़े स्कूल में भी बच्चों को बाइबिल कि शिक्षा दी जाती है लेकिन हमारे देश के बड़े स्कूलों में रामायण महाभारत या गीता के बारे कभी नहीं बताया जाता , क्यों? जब हिंदी का शोषण करना होगा तो यही अंग्रेजी वाले सबसे आगे खड़े मिलेंगे. पूरा फिल्म उद्योग बातचीत अंग्रेजी में करता है और फिल्में हिन्दी  में बना कर दौलत बटोरता है. लेकिन जो लोग हिंदी कि ताक़त को समझते हैं वे सदा इसका सम्मान करते हैं. हिंदी विख्यात विद्वान  डॉ. कामिल बुल्के रामकथा सुन कर राम भक्त हो गए थे  और  राम को जानने के लिए उन्होंने हिंदी सीखी . विख्यात फ्रांसिसी पत्रकार गीता पढ़ कर कृष्ण भक्त हो गए और अमरीकी विद्वान् डेविड फ्रौले ने तो पुराणों – वेदों में तो जीवन रमा दिया . ये लोग हिंदी कि ऊर्जा को महसूस करते थे. आज आज हमारे बच्चों को उसी ऊर्जा के प्रति संवेदनहीन बनाने के लिए ये स्कूल साजिशन ऐसा कर रहे है. क्योंकि बच्चों को मानसिक तौर पर गुलाम बनाना और उन्हें उनकी संस्कृति से काट देना ज्यादा  आसान है. स्कूल इसके लिए सबसे उचित साधन है. ह्गामारे आज के स्कूल बच्चों के द दिमाग में फकत यही भरते रहते हैं  कि अगर वे  इस विदेशी भाषा में पारंगत हो जायेंगे तो उन्हें वह संस्कृति अपना लेगी.

अंग्रेजी भाषा में पारंगत जवाहर लाल नेहरु तक ने  एक बार कहा था कि “ अंग्रेजी सौतेली भाषा है.” इसी पर विख्यात उपन्यासकार प्रेमचंद ने  चुभती हुई टिपण्णी की थी कि “सौतेली भाषा पटरानी भाषा बन गयी है और हिंदी भिखारियों की  भाषा बना दी गयी है.”  विडम्ब्ना यह है कि जो हमारे नेता हैं उन्हें ही इस भाषा से मतलब नहीं है.

देश के कई इलाकों में भाषा को लेकर आन्दोलन होते हैं. जैसे कर्नाटक में कन्नड़ को लेकर चल रहा है. बेशक स्थानीय भाषा को प्रमुखता मिले पर उसके साथ हिंदी भी हो , एक विदेश भाषा क्यों? हिंदी का साहित्य किसी भी मामले में अंग्रेजी से कम नहीं है. यदि उनके पास शेक्सपीयर , कीट्स, वर्ड्सवर्थ , बायरन हैं तो हमारे पास तुलसी, कबीर , सूर और जायसी हैं, प्रेमचंद , प्रसाद , दिनकर , गुप्त और निराला है.  

  इसीलिए जब किसी देश को अपना मानसिक ग़ुलाम बनाना होता है तो पहले उस देश की भाषा को मार डालते हैं या उसके आसपास इतनी छोलदारियां खड़ी कर देते हैं कि उन्हें उस देश कि भाषा लांघ ही न सके. धीरे धीरे उस भाषा में ज्ञान और शब्दों का अकाल होने लगता है. एक वक्त ऐसा आता है जब उसमें विज्ञान , टेक्नोलोजी, वाणिज्य इत्यादि का ज्ञान उपलब्ध नहीं होता. वह भाषा व्यापारिक तथा जीवन की  अन्य गतिविधियों का वाहक नहीं बन पाती  और जब भी उसमें जीव संचार कि कोशिश होती है तो उसके चारो ओर तनी छोलदारियों से विरोधी आवाज़ उठने लगती है. भाषा में अकाल से भाषा की  मौत कि एक क्रमिक प्रक्रिया होती है. भाषा इसलिए नहीं ख़त्म हो जाती कि उसे बोलने वाले बोलना छोड़ देते हैं यह बिलकुल सभ्यता और संस्कृति की तरह होती है. यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में निष्क्रमण के दौरान धीरे धीरे मरती है. पहले उसकी अर्थकारी क्षमता समाप्त होती है और वह खुद ख़त्म होई जाती है. संस्कृत का उदाहरण एकदम स्पष्ट है. हिंदी के साथ भी कुछ ऐसा ही शुरू हो चुका है. औपचारिक व्यापारिक गतिविधियाँ ,वैज्ञानिक अनुसंधान,इंजीनयरिंग ,मेडिकल , कानून इत्यादि हिंदी में नहीं पढाये जाते यानि रोज़गार देने की  क्षमता हिंदी में ख़त्म हो  रही है . यह एक गुम मौत है. हिंदी बाजारू भाषा बन गयी जिस तरह से संस्कृत को पंडिताऊ भाषा बना कर छोड़ दिया गया. हिंदी कि प्रतिष्ठा नहीं रही यह केवल बाज़ार में या घर में बोली जाने वाली भाषा बन कर रह गयी. विद्यालयी कक्षाओं को छोड़ छात्र कहाँ देवनागरी लिपि का उपयोग करते हैं? हिंदी का उपयोग लोक मनोरंजन और बोली के रूप में होता है. हिंदी का शब्द कोष अंग्रेजी के चालू शब्दों से भर रहा है. दैनिक जीवन में भी अंग्रजी के शब्द घुसते आ रहे  हैं. पुलिस, इंजिनीयर ,प्लंबर इत्यादि के हिंदी शब्द लोग कभी इस्तेमाल नहीं करते और यदि करते भी हैं तो भाषा का मखौल उड़ाने के लिए. किसी जटिल मामले पर बहस के दौरान लोग अपनी बात में अंग्रेजी के शब्द घुसेड़ने से बाज़ नहीं आते. किसी भी भाषा के विकास की  राह में अवरोध तब खड़े हो जाते हैं जब उस भाषा के माध्यम से  सामाजिक तथा आर्थिक विकास अवरुद्ध हो जाता है. आज हमारे बीच कितने दिनकर और प्रेमचंद हैं? अगर हैं भी तो उनकी पूछ नहीं है. हम में से बहुत लोग समकालीन हिंदी लेखकों और कवियों को जानते तक नहीं. अंग्रेजी किताबों का हिंदी अनुवाद छाप कर हिंदी प्रकाशन उद्योग चल रहा है. साहित्योत्सव में अंग्रेजी का दबदबा रहता है और हिंदी पखवाड़े में हिंदी का रोना रोया जाता है. भारत की  बड़ी कम्पनियां अपनी वार्षिक रिपोर्ट अंग्रेजी में प्रकाशित करती हैं और यदि यही कम्पनियां किसी अन्य देश में होती हैं तो वे वहाँ कि भाषा में अपनी रपट प्रकाशित करती है. हवाई टिकटों  को बुक करने के लिए एअर लाइन की  वेब साईट पर केवल अंग्रेजी में ही काम किया जा सकता है.

 हिंदी सिनेमा की  टिकटें अंग्रेजी में छपती हैं और मामूली पढ़े  ड्राइवर के ड्राइविंग लाइसेंस अंग्रेजी में छापते हैं. इतना ही नहीं कोर्ट में फैसले के इंतज़ार में खड़े  गरीब का मुकद्दर जिस भाषा में लिखा जाता है उस भाषा को वह नहीं जानता.

ऐसा नहीं कि हममें से बहुत से लोग हिंदी से इस भेदभाव या हिंदी की बिगडती हालत से वाकिफ नहीं हैं. यही कारण है कि हिंदी को लागू किये जाने के नाम से ही विरोध आरम्भ हो जाता है, और फिर डर के मारे हम यह भी कहने लगते हैं कि अंग्रेजी भी हमारी भाषा है. वे यह नहीं समझाते कि जब हम किसी कि भाषा को मिटाते हैं तो उसकी स्मृति को भी मिटा देते हैं. ऐसे स्मृति विहीन लोग अपने इतिहास और अपनी संस्कृति  से कट जाते हैं और पतवार हीन नौका की  तरह दिशाहीन हो जाते हैं.

 भारत की  आज़ादी लड़ाई के वीर सेनानियों का भला हो जिन्होंने  पहली बार भारत के  लिए एक सामान भाषा की कल्पना की. उन्होंने खड़ी बोली को विकसित किया. हमारे शिक्षा संस्थानों और विद्वानों ने हिंदी को स्तरीय रूप दिया. हिंदी में लिखना लोकहित समझा जाने लगा. परिणाम यह हुआ कि 1880 के दौरान बिहार , उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की  निचली अदालतों में हिंदी स्वीकार कर ली गयी. 1930 तक हिंदी साहित्य विश्वस्तरीय साहित्य हो गया. हिंदी के सौरमंडल में गुप्त जी, निराला जी,प्रेमचंद, दिनकर ,बालकृष्ण शर्मा नवीन  जैसे  सितारे चमकने लगे. इन लोगों ने देश में भारतीय संस्कृति और सभ्यता की  अलख जगाई. हिंदी राजनितिक परिक्षेत्र में प्रवेश करने लगी. नेताओं ने अंग्रेजी को हटा कर हिंदी को स्थापित करने का प्रयास किया. नेहरु ने तो यहाँ तक कह दिया  कि “ कोई भी देश विदेशी भाषा अपना कर महान नहीं बन सकता.क्योंकि विदेशी भाषा कभी भी आम जन की भाषा नहीं बन सकती . बावजूद इसके कि अंग्रेजी कितनी भी महत्वपूर्ण हो हम यह बर्दाश्त नहीं कर सकते कि कुछ अंग्रेजी जानने वाले इलीट लोग हों बाकी सब जो अंग्रेजी नहीं जानते वे वे उनकी ग़ुलामी करते रहे. इसलिए हमारी अपनी भाषा होनी ही चाहिए.”  नेताओं ने भारत को जोड़ने के लिए हिंदी का उपयोग करना शुरू किया . 1918 में महात्मा गाँधी ने नारा दिया कि “ जबतक सभी लोग हिंदी में काम नहीं करते देश विकसित नहीं हो सकता. “ गाँधी का उद्देश्य था लोकभाषा हिन्दुस्तानी को विकसित करना ,ताकि लोग स्वयम उसे सीखें. टैगोर ,तिलक ,राजगोपालाचारी सब इसके पक्ष में थे. हिंदी  प्रचारिणी सभा द्वारा चलाये गए अभियान में 6 लाख दक्षिण भारतीय नौजवानों ने हिंदी सीखी.  आज़ादी के बाद  भारत की  सरकारी भाषा को अंग्रेजी से हिंदी में बदलने का काम विख्यात कवि  डा. हरिवंश राय बच्चन बच्चन को  सौंपा गया. बच्चन जी ने अपनी जीवनी में लिखा है कि “ हमारे आस पास के  अंग्रेजी बोलने वाले साहब लोग हिंदी को नौकरों और चपरासिओं से बात करने की  भाषा समझते थे.” लेकिन जब हिंदी के शुद्ध शब्दों को लाने कि बात हुई तो तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू चिढ  गए . एक बार तो नेहरू और बच्चन में विवाद भी हो गया.माजरा यह था कि बच्चन जी ने डा. राधा कृष्णन के मूल भाषण का अनुवाद किया. अनुवाद नेहरु जी कि समझ में नहीं आया. उन्होंने बच्चन जी से नाराजगी जाहिर की. बच्चन जी ने कहा कि “मैंने तो राधाकृष्णन के शब्दों का ही अनुवाद किया है. ” नेहरु कहने लगर कि यह भाषण  जाकिर हुसैन पढेंगे  और वे तो इन शब्दों का उच्चारण तक नहीं कर सकते. बच्चन जी अड़ गए और कहा कि “पंडित जी,एक आदमी के उच्चारण को रास आने के लिए भाषा नहीं बदली जा सकती. ” बाद में उस भाषण का उर्दू में अनुवाद हुआ और वही अनुवाद पढ़ा गया.

  हिंदी पर अक्सर संस्कृतकरण का आरोप लगाया जाता है. लेकिन यह जायज नहीं है. जो बच्चा “ ए फॉर एप्पल और बी फॉर बॉय “ सीख रहा हो उसे तो “ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार “ तो कठिन लगेगा ही. अंग्रेजी बहुत से शब्द लैटिन के हैं अगर उसमें लैटिन के प्रयोग पर रोक लगा दी जाय तो अंग्रेजी घुट कर रह जायेगी. उसी तरह संस्कृत ने  हिंदी का पोषण किया है और उसके असर  के बिना हिंदी की  कल्पना नहीं की जा सकती. जो लोग यह दलील देते हैं कि हिंदी में मेडिकल ,इंजीनिअरिंग की  किताबें नहीं उपलब्ध हैं तो उनसे निवेदन है कि वे जापानी, रुसी , हिब्रू भाषाओं को देखें जिनमे कुछ ही वर्षों में वैज्ञानिक विषयों का अनुवाद कर लिया गया और अब वहाँ उसी भाषा में शिक्षा दी जाती है.

  वर्तमान सरकार खुद को राष्ट्रवादी कहती है तो हिंदी पखवाड़े में वह प्रतिज्ञा करे कि वैज्ञानिक विषयों का हिंदी में अनुवाद कराया जाय. इससे  बड़ी राष्ट्र सेवा हो ही नहीं सकती.      

     


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