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Saturday, November 18, 2017

एक सुलगता सवाल 

एक सुलगता सवाल 

जबसे आजादी मिली तबसे यह कभी नहीं सोचा गया कि स्वास्थ्य मामला सरकार का विषय हो या नहीं हो या देश के विभिन्न तरह की फैलती बीमारियों के लिये किसे उत्तरदायी बनाया ज्चाय या कौन उत्तरदायी हो। अभी हाल में भरत सरकार द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कोई एक बात ऐसी नहीं है जो सभी राज्यों में हो। हर राज्य के साथ अपनी स्वास्थ्य समस्याएं हैं ओर उसे लेकर परेशानियां है। लगता है कि देश के भीतर कई देश हैं। इस रिपोर्ट में विगत 26 वर्षों में 30 राज्यों में 333 बीमारियों की दशा का अध्ययन किया गया है। इस अध्ययन में जोखिम के 84 ततवों को बी शामिल किया गया है। भारत में स्वास्थ्य राज्यों का विषय है। हालांकि केंद के स्तर पर कुछ नीतियां बनती हैं ओर कुछ धन भी दिया जाता है। लेकिन राज्यों को इसे न केवल लागू करने बल्कि उन्हें और व्यापक करने का भी अदिाकार है। यह जो साझा जिममेदारी है वह राज्यों में स्वास्थ्य के मामले में  भारी असमानता पैदा करती है। यह रिपोर्ट बताती है कि देश में स्वास्थय की एक विचित्र कथा है। हर राज्य की एक अपनी समस्या है। इस रिपोर्ट में पेश आंकड़ों को और सूक्ष्म बनाना होगा ओर नीतिगत हस्तक्षेप करना होगा। भारत के राज्य जिसतरह की अलग- अलग बीमारियों का सामना कर रहे हैं उसके लिये राज्यों के मामले में एक भिन्न नीति की जरूरत है। इस रिपोर्ट में जो कुछ है उसकी कुछ छाया नीति आयोग एक्शन प्लान 2017- 2020 और राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में भी दिखती है। दोनों में यह सिफारिश की गयी है कि और विकेंद्रित स्वास्थय नीति बनायी जाय। इधर केंद्र सरकार की दिक्कत यह है कि वह कई मामलों को संभालता भी है जैसे नेशनल हेल्थ मिशन , कई प्रमुख नीतियां और मेडिकल शिक्षा वगेरह। अतएव विकेंद्रीकरण एक नीतिगत दिशा है और सरकार पहले से ही उसपर चल रही है। कई बार तो राज्य सरकारें केंद्र को खुली छूट भी दे देती हैं। 

अब चूंकि स्वास्थय राज्यों की जिम्मेदारी​ है इसलिये औरल केवल इसी कारणवश केंद्र इससे अपने हाथ नहीं झाड़ पायेगा। यह अक्सर देखा जाता है कि केंद्र से धन पाकर राज्य सरकारें खुश होती हैं। जब राज्यों को कोई मदद सशतै दी जाती है तो राज्य सरकारें उस कनाम को बखूबी पूरा करतीं हैं। इसे राज्य का विषय कहना स्वयं अलगाव पैदा करना है। ऐसी बीमारियां जो छूत से नहीं फैलतीं का उदाहरण लें। दुनिया भर के वैज्ञाानिक यह बता रहें हैं किजो छूत से होती थीं वह अब धीर धीरे ऐसी बीमारियों में बदल रहीं हैं जो छुआछूत वाली नहीं नहीं हैं। इससे यह भी पता चलता है कि देश का हर राज्य छुआछूत से नहीं फैलने वाली बीमारियों के बढ़ते दबाव में है। कुछ राज्यों में यह तो 1986 से ही शुरू हो गया था। बीमारियों के फैलने के एक सेमिनार में स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने कहा कि कई राज्यों में यह बदलाव तीन दशक पहले से ही शुरू हो गया था कई राज्यों में अभी शुरू हुआ है। इसका मतलब है कि इस मायने में ज्यादा विकसित राज्यों को इसका सामना युद्ध स्तर पर करना चाहिये ताकि अन्य छुआछूत से नहीं फैलने वाली अन्य  बीमारियों से मुकाबले की ताकत पा सकें। 

  यद्यपि किसी कार्यकम को लागू करने या उसपर फोकस करने का दबाव पहले से ही है लेकिन कुछ राज्यों में इसकी बहुत जरूरत है। मसलन, बिहार जो बीमारियों की चुनौतियों से जूझ रहा है हालांकि उसका स्थान केरल , गोआ और तमिलनाडु से नीचे है। बिहार के बाद झारखंड , उत्रर प्रदेश और राजस्थान है। ये सारे राज्य छुआछूत से नहीं फेलने वाली बीमारियों के आतंक से जूझ रहे हैं। रिपोर्ट में इसे भारत की दोहरी चुनौती कहा गया है। हालांकि पेचिश, सांस की बीमारी , तपेदिक ओर नवजातों को होने वाली बीमारियां घट रहीं हैं। पर इसी के साथ दिल की बीमारी, ह्रदयाघात और मधुमेह चैसी छुआछूत से नहीं फैलने वाली बीमारियां बड़ रहीं हैं। इस रिपोर्ट में 1990 के बाद के आंकड़ों का विश्लेषण है। इसमें यह स्पष्ट है कि उस समय छुआछूत वाली बीमारियों का 61 प्रतिशत बोझ था। यह 2016 में घट कर 33 प्रतिशत हो गया है। 

अब केंद्र और राज्य में किसके ऊपर जवाबदेही हो, यह प्रमुख प्रश्न है। यहां एक समस्या है। भारत के कई राज्य दुनिया के कई देशों से बड़े हैं। ऐसे में यदि विकेंदी करण होता है तो इसका कत्तई मतलब नहीं है कि केंद्र अपना हाथ खींच ले। बीमारियों के बोझ और उनकी ाातक क्षमता के आधर पर साझेदारी का एक नक्शा तैयार किया जाय। 

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