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Tuesday, January 2, 2018

सन्मार्ग के 25000 वें के अंक पूरे होने के अवसर पर , 25 हजारवें सोपान पर लहराता ध्वज 

सन्मार्ग के 25000 वें अंक के पूरे होने के अवसर पर

25 हजारवें सोपान पर लहराता ध्वज 

" जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो " के जुमले वाला जमाना लद चुका था और " इश्वर अल्लाह तेरे नाम " का वक्त भी बीत चुका था। देश बंट चुकाा और शरणार्थियों की शक्ल में भारत भूमि की कराह और टीस फिजां घुली हुई थी। भयंकर अविश्वास और भीषण संशय पूरा समाज त्रस्त था। धर्म और मजहब  के नाम पर जो कुछ भी हुआ उसके नतीजे के रूप में शहर की गलियों में इंसन कम ओर लाशें ज्यादा दिखायी देने लगीं। ऐसे में इस शहर में धर्म के ताने बाने में सामाजिक सौहार्द के नये प्रकल्प  की कल्पना में  एक संत ने " नमोस्तुरामाय सलक्ष्मणाय  देव्यै च तस्यैजनकात्मजायै नमोस्तुरुद्रेन्द्रयमानिलेभ्यो । नमोस्तुचन्द्रार्कमरुद् गणेभ्यः" काशंख फूंका और रामराज परिषद के तत्वावधान में सन्मार्ग की स्थापना की। वह संत थे स्वामी करपात्री जी महाराज और सन्मार्ग  केवल अखबार नहीं उनके जीवन का दर्शन था, कर्म था। आज उस सन्मार्ग ने 25 हजार अंक पूरे किये यानी वह अपनी यात्रा के 25 हजारवें पड़ाव पर खड़ा है। आज इस पड़ाव पर कोई भी पूछ सकता है कि सन्मार्ग यदि दर्शन है तो इस दर्शन की कलकत्ते में क्या जरूरत थी? अभी कहा गया है कि देश की धरती पर खून की लकीर खींच कर उसे बांट दिया गया और बंटवारे के दौरान दंगे हुये और दंगे के  उस दर्द से देश कराह रहा था। ्रहवा में एक अजीब सी चेतावनी और आने वाली आंधी की भनक सुनायी दे रही थी। इस दौरान जो दंगे हुए वे  एक अस्वाभाविक और अनैतिक प्रक्रिया का स्वाभाविक और अनिवार्य परिणाम था। इतिहास में जब कोई प्रक्रिया अस्वाभाविक और अनैतिक होती है तो उसकी पृष्ठभूमि में कुछ ऐसी शक्तियों का निहित स्वार्थ होता है जो मनुष्य उसके सहज स्वभाव से हटाकर बाहरी छद्म की ओर ठेल देता है। जिस तरह हर झूठ को विश्वसनीय बनाने के लिये उसमें सत्य का कुछ अंश मिलाना जरूरी होता है उसी तरह हमारी परम्परागत धार्मिक भावनाओं का शोषण किया गया ओर देश के आम आदमी को धर्म से उन्मूलित कर साम्प्रदायिक बना दिया गया। ऐसी परिस्थिति में सच क्या है यह बताने के लिये सन्मार्ग की स्थापना हुई। 

आज सूचनाक्रांति के इस निविड़ संजाल में जहां सच हर लम्हा कतरा- कतरा तैरता हुआ सतह पर आ जाता है तब सच को बताने की क्या जरूरत है ओर जब जरूरत नहीं तो फिर सन्मार्ग का औचित्य क्या है? क्योंकि ऐसे में उसका उद्देश्य तो पूरा हो जाता दिख रहा है। लेकिन यहां एक भ्रम है ठीक वैसा ही जैसा यूरोप ने आत्मगौरव से तने अपने सिर को झुका कर नही देखा ओर यूरोप दो- दो महायुद्धों के गहरे अंधकार में डूब गया। आज जिसे हम सूचना का प्रचंड संजाल समझ रहे हैं वह असल में सूचना के आधुनिक तिलिस्म का मायावी धुंध है जो  परंपरा को ज्ञान और आलोक से हटाकर उसका सही और स्वस्थ स्वरूप प्रस्तुत करने से रोक रही है। आज 25 हजारवें सोपान पर भी खड़े होकर हम इसी कोशिश में हें कि बीते कल  को आने वाले कल  की जीवंत धड़कन को जज्ब कर दें। उस दिन हम आशंका के घने कोहरे में खड़े थे आज सूचना के गहरे धुंध  में खड़े हैं। सच उस दिन भी ओट में आज भी नजरों से ओझल है , इसीलिये तो हमारा मानना है कि खबरें अनेक सच्चाई एक। हमारे पूर्वजो ने सन्मार्ग का शंख फूंका। असल में उनका जो भविष्य था वही तो आज हमारा वर्तमान है। उनहोंने अपने भविष्य के बारे में जो सपने देखे वही आज हम भोग रहे हैं। 25 हजारवें सोपान पर हमारी कलाई पकड़ कर पूच जा रहा है कि सन्मार्ग की स्थापना महामना संत  करपात्री जी  ने क्यों की? ऐसे सवालों के उत्तर तत्काल नहीं मिलते। त्रेता में भी इसी से मिलता जुलता एक प्रश्न पूच गया था कि , राम का जन्म क्यों हुआ ? समय के पास इसका उत्तर नहीं था। कई सौ वर्षों के बाद त्रेता में इस प्रश्न का उत्तर कृष्ण ने दिया महाभारत के मैदान के बीच में खड़े हो कर- " विनाशाय च दुष्कृताम ! "  समय की अविरल धारा का कैसा प्रवाह है।  उसी प्रवाह में अगर आप आज की स्थिति का मूल्यांकन करें तो लगेगा कि हम एक भयावह संकट के दौर से गुजर रहे हैं जिसमें हमारी परंपरा पर प्रश्न उठ रहे हैं।उस परंपरा की रक्षा ही " परित्राणाय च साधूनां " है।  अब सवाल उठता है कि सन्मार्ग क्यों   इस आधुनिक युग उस प्राचीन परम्परा की हिफाजत में जुटा है और हमारे पूर्वजों ने ऐसा संकल्प क्यों लिया?

  इस संकल्प को समझने के लिये हमें सन्मार्ग के मिथकों और बिम्बों को समझना होगा। उनके रहस्य खोलने होंगे। ऊपर कहा गया है कि महान संत करपात्री जी ने नमोस्तु रामाय सलक्ष्मणाय .... का शंख फूंका। यह स्वयं में एक बिम्ब है ओर इससे जुड़ा मिथक है सन्मार्ग ऐव सर्वत्र पूज्यते .... इन मिथकनों और बिमबों को जोड़ कर देखें तो जो दर्शन प्राप्त होगा वह है संधान के अधिकार और क्षमता के दुरुपयोग पर अंकुश । यानी फल की पवित्रता के लिए साधन की शुचिता आवश्यक है। पिछले वर्ष एक मुलाकात में जगदगुरू स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने कहा था कि " अशौच साधन से पवित्र साध्य उपलब्ध नहीं हो सकता। " आज खोजी पत्रकारिता और समाचार संधान के लिये अधिकारों का दुरुपयोग और साधन की शु​चिता से समझौता सत्य के लिये सबसे बड़ा संकट है। हमारे पूर्वजों ने यहीं मिथक गढ़ कर वर्जना कायम की थी - ..... नापथ: क्वचित। यानी संधान के अधिकार और क्षमता में एक सरल सहसम्बंध है जैसे देह अंगों को ढोती है या अंग देह यह पता करना संभव नहीं है।  जिस समय हामारे पूर्वजों ने सन्मार्ग का पहला अंक हाथों में लेकर देखा होगा वह वक्त कुछ ऐसा था जब आम आदमी को उसके सहज स्वभाव से  भटकना कर छद्म लक्ष्य की ओर मोड़ा जा रहा था और हमारे पूर्वजों ने स्न्मार्ग की पहली प्रति हवा में लहरा कर आगत काल को आश्वस्त किया होगा " हम रहें या नहीं पर यह रहेगा और  छद्म लक्ष्य की ओर बढ़ रहे समाज की दिशा को बदल कर रचनात्मक यथार्थ की ओर ले जाने की कोशिश में लगा रहेगा। " 25 हजारवें सोपान पर खड़े होकर भी सन्मार्ग के संचालक ने   चिंतन, कर्म और व्यवस्थाओं को जातीय मर्यादाओं से जोड़ना ही लक्ष्य बना रखा है।  

आज 25 हजारवें सोपान पर हमसे पूछा जा रहा है कि वह लक्ष्य जिसे हमारे पूर्वजों ने तय किया था और पहले अंक को लेकर जो सपने बुने थे वह लक्ष्य कहां तक पूरा हुआ? 25 हजार सोपान के आरोहण के बाद जब यह सवाल आता है तो एक ही जवाब है - सन्मार्ग का आप्त वाक्य , उसका  नाम और उसकी वर्जनाएं । यह भौतिकता का मूलभूत तत्व है यानी " सत" है। वह सत जो सच्चिदानंद का सृजन करता है। तुलसीदास ने कहा है 

सौरज धीरज तेहि रथ चाका । सत्य सील दृढ ध्वजा पताका ।।

बल बिबेक दम परहित घोरे । क्षमा कृपा समता रजु जोरे ।। 

  हमारे पहले अंक के साथ जो दीपशिखा प्रज्वलित हुई थी वह आज भी प्रकाशित है क्योंकि उस दीपक को  हमारे सुधि पाठक , विज्ञापनदाता और हितैषी अनवरत अपना " स्नेह" प्रदान करते रहे  हैं। हम इस दीपक को प्रकाशमान रखने के लिए उनके अत्यंत आभारी हैं।

सखा धर्ममय अस रथ जाकें । जीतन कहँ न कतहुं रिपु ताकें ।।  

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