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Monday, January 22, 2018

हमें अपनी राह खुद बनानी होगी

हमें अपनी राह खुद बनानी होगी

आज नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म दिवस है और आज के ठीक तीन  दिन बाद हमारे देश का गणतंत्र दिवस है।  ऐसे मौके पर देश के बारे में सोचना जरूरी होता है। आज भारत में जो कुछ भी हो रहा है वह बिल्कुल अविश्वसनीय है। क्योंकि सरकार का कहना कुछ है और हो कुछ दूसरा ही रहा है। इसका कारण है कि  हम जो भी देख रहे हैं या सुन रहे हैं  उस के संदर्भ को परखने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। मीडिया भी लगातार सच्चाईयों के इतने पहलुओं को सामने रख दे रहा है कि सब कुछ भ्रमित होता महसूस होता है।  ऐसा लगता है कि कोई एक गज के लिए हमें पूरा थान हीं हारना चाहता हो या हारने के लिए तैयार हो। हमें अक्सर विदेशों का उदाहरण देकर समझाया जाता हे यह नीचा दिखाया जाता है। यह एक तरह की मूर्खता है। हर देश एक जैविक इकाई है।   समन्वित भारत को उसके सामाजिक मनोवैज्ञानिक स्तर पर देखें तो तीन तथ्य स्पष्ट होते हैं।  पहला कि, भारत के लोग कंप्यूटर की तरह नहीं है जो एक प्रोग्राम में बिहेव करेंगे या आचरण करेंगे उनसे इस तरह क्या आचरण की अपेक्षा समय बर्बाद करना है। कंप्यूटर का प्रोग्राम अचानक कुछ भी नहीं कर सकता उसका करना हमेशा प्रोग्राम्ड होता है। भारत यह लोग तयशुदा दिशा में कोई काम नहीं कर सकते।  यहां धर्माचरण से लेकर काला बाजार तक अचानक  होता है। दूसरे कि भारत वर्षों तक या कहिए कई सदियों तक गुलाम रहा और गुलामी से निकलने के लिये लगातार रहा, तरह तरह के प्रयोग करता रहा  इसलिए यहां की जनता के सोच में शांति और स्थायित्व की तलाश बेकार है। भारत के लोग छोटी-छोटी बातों पर भावुक हो जाते हैं और अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं और बड़ी से बड़ी बात को नजरअंदाज कर देते हैं। तीसरी बात जिसके लिए आरंभ में सुभाष चंद्र बोस और लोकतंत्र का हवाला दिया गया वह है कि भारत की आजादी एक चमत्कारिक विचार के रूप में उत्पन्न हुई थी। यही कारण है गकि अाज भी कवियों से लेकर राजनेता तक आजादी को बचाने की अपील करते देखे सुने जाते हैं। इसलिये देश में  अगर भ्रष्टाचार है स्वतंत्रता भी उससे जुड़ी हुई है। इसलिए भ्रष्टाचार के हर प्रयास को चुनौती देने की हमारा देश आजादी भी देता है।

    कोलकाता के बड़ा बाजार  या किसी भी अन्य बाजार में अगर ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे खाने पीने की अनगिनत दुकानें हैं।  इनमें खाने की तरह तरह की चीजें बिकती हैं। सबके पास अपने ग्राहक हैं। यह संकेत है कि भारत की जनता के पास उद्यम का अभाव नहीं है और ना बाजार का। जरूरत है उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने की। यह बात कोलकाता में हाल में हुये विश्व बांगला सम्मेलन में खुल कर सामने आयी। 

     हमारे यह दो ही तरह के विचार अक्सर सुनने को मिलते मिलते हैं। पहला की यहां कुछ नहीं हो सकता और दूसरा कि सर्वत्र कुंठा व्याप्त है लेकिन हमें इस से ऊपर उठकर सोचना होगा कि क्या हम हम भारत के विकास के लिए जनता को तैयार करना जरूरी समझते  हैं।  जिस देश ने नेताजी के एक नारे पर - " तुम हमें खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा" , - पर आजादी की जंग की शुरुआत हो गयी , उस देश की जनता को विकास के अवसर नहीं समझा पाना हमारी सबसे बड़ी कमी है।  हम सरकार पर सब कुछ छोड़ देते हैं। ऊपर कहा जा चुका है कि हमारा माइंडसेट गुलामी की पीड़ा के बाद तैयार हुआ है और यही कारण है कि  हम हर  छोटे और बड़े काम के लिए सरकार की तरफ देखने के आदी हो गये  हैं। हम खुद अपने स्तर से कुछ नहीं करना चाहते। हमें अमन के भंगुर आधार को समझना होगा और यह मानना होगा। यहां के लोगों में काम करने का हुनर है और काम के अवसर का अभाव भी। लेकिन फिर वही बात आ जाती है कि शांति और स्थायीत्व के बारे में के बारे में कैसे सोचा जाए?  भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां हर 5 वर्षों के बाद चुनाव होने हैं और चुनाव में नयी सरकारें बनती भी हैं और पुरानी गिरती भी हैं। अगर एक सरकार गिरती है और दूसरी आती है तब नीतियों पर भी दूसरा असर पड़ता है तथा उसका प्रभाव रोजगार पर भी पड़ने लगता है। रोजगार जहां प्रभावित होता है उसी क्षण शांति भी प्रभावित होने लगती है। पहले मानसिक और असके बाद सामाजिक।  क्योंकि हमारा सारा दारोमदार हमारी सारी व्यवस्था सरकार पर ही निर्भर है। हम  किसी काम के लिए सरकार से अलग होकर सोच ही नहीं सकते।  आर्थिक उदारीकरण ने देश की  आर्थिक अवधारणा में बहुत बड़ा बदलाव लाया है लेकिन यह बदलाव जमीनी स्तर तक नहीं है। यह बदलाव अनि​िश्चत है और हर अलग मामले के लिये अलग है। ठीक वैसे ही जैसे  आप किसी सड़क पर बहुत तेज रफ्तार से जा रहे हैं और अचानक एक ठोकर आता है। ऐसे में दो ही बातें होती हैं पहला कि आपकी गाड़ी कूद जाएगी और फिर जमीन पर आकर ठीक से चलने लगेगी और दूसरा यह  आपकी गाड़ी  कूद जाएगी लेकिन जमीन पर आने के पहले उसके चक्के निकल जाएंगे।  उसके पुर्जे बिखर जाएंगे। ऐसी ही व्यवस्था हमारे देश में है।  उद्यम की ठीक से चलती हुई गाड़ी सरकार के इस कदम से कूद कर और निवेशकों के नियंत्रण से बाहर निकल जाए या फिर ठीक से चलने लगी है। जरूरी है हमें अपने स्तर से सड़क को ठीक करना। 

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