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Monday, May 21, 2018

यह हमारे लोकतंत्र का नाटक है

यह हमारे लोकतंत्र का नाटक है
पिछले कुछ दिनों से कर्नाटक में जो चल रहा है वह दरअसल केवल वहीं नहीं है बल्कि हमारे पूरे लोकतंत्र में यह हो रहा है। हम चौबीसों घंटे छोटी-छोटी सियासी लड़ाइयों में जुटे रहते हैं और उन्हें जीतने की कोशिश में  लगे रहते हैं।यह नहीं देख रहे हैं कि इस विजय में हम सामूहिक रूप से पराजित होते जा रहे हैं। दरअसल, हमारा लोकमानस संवाद के संकट से गुजर रहा  है । बाहर -बाहर दिख रहा है कि जोरदार संवाद चल रहा है लेकिन भीतर से सब कुछ मौन है। पूरा समाज कई गुटों में बंट गया है। कोई किसी खास व्यक्ति की आलोचना में जुटा हुआ है तो कोई गुट किसी विशेष संगठन की निंदा ही अपना उद्देश्य बना रखा है। जितनी भी घटनाएं घटती हैं सबका राजनीतिकरण होता जा रहा है। हमारे सारे संबंध ,सारे रिश्ते इसी की भेंट चढ़ गए हैं और हम अलग अलग लड़ाईयां जीतने में जुटे हुए हैं। हम यह नहीं देख पा रहे हैं यह विजय एक समष्टिगत पराजय है। इस पराजय से अनभिज्ञ हम अपनी सुविधा के अनुसार अपने-अपने गुट बना ले रहे हैं और एक दूसरे की पीठ ठोंकने या फिर उसकी आलोचना करने में जुट गए हैं। इस प्रक्रिया में चुटकुलों से लेकर गालियों तक का इस्तेमाल खुलकर हो रहा है। यही नहीं  इतिहास को झुठला दिया जा रहा है अथवा भ्रामक ऐतिहासिक प्रसंगों को पेश कर उन्हें ही प्रमाणित कहा जा रहा है। तकनीकी कौशल से बनाई गई तस्वीरों को कुछ इस तरह पेश किया जा रहा है मानो वह सच हैं और फिर उस झूठे सच को सनसनीखेज बनाकर लोगों के सामने इस तरह प्रस्तुत किया जाता है मानो सब कुछ सही है। कविताओं और फिल्मी गीतों के पैरोडी गढ़े जा रहे हैं। ऐसा वातावरण तैयार करने की कोशिश की जा रही है मानो वही सच है बाकी सब झूठ है। बहुत तेजी से सत्य से नैतिकता और ईमानदारी के मूल्यों का क्षरण होता जा रहा है। सब पर से भरोसा लगातार कम होता जा रहा है। सरल और सही ढंग से सोचने वालों को बेवकूफ माना जाने लगा है। वर्तमान में हम दो ही काम करते हैं या तो आंख बंद करके समर्थन करते हैं या फिर विरोध।
    ऊपर से तो दिखता है कि बहुत कुछ लिखा- देखा और कहा जा रहा है अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर। सबचर्चा से भरे रहते हैं। लेकिन जो वास्तव में होना चाहिए वह नहीं हो रहा है। समस्त समाज अभिव्यक्ति की कठिनाइयों से जूझ रहा है। शब्दों के स्वतंत्र अर्थ नहीं हैं हर शब्द में निहितार्थ खोजना पड़ रहा है। वाक्य में शब्दों के नए अर्थ पनपते  जा रहे हैं और असल अभिव्यक्ति शून्य होती जा रही है। उनमें अर्थ संप्रेषित करने की ताकत खत्म होती जा रही है समाज हताश होता जा रहा है।  इस हताशा को इनकार करने के लिए वह दूसरों में दोष निकालता है कि "पहले भी तो ऐसा होता था उस काल में भी तो यही हुआ था आज हो रहा है तो क्या हुआ? ऐसा लग रहा है जैसे पूरा समाज संवादहीनता  और  अभिव्यक्ति विहीनता  की संकरी सर्पीली गलियों में भटक गया है। बकौल ग्रामस्की यह स्थिति व्यवस्थागत सुधार मैं बहुत बड़ी बाधा है पिछले कुछ चुनावों का मुआयना करें । हर चुनाव परिणाम के बाद हमें गिरावट का एक नया स्तर देखने को मिलता है। वह गिरावट धीरे-धीरे आम बात बन जाती है और फिर हम और गिरने लगते हैं दूसरे चुनाव के बाद। यह एक तरह से सोशल कंडीशनिंग है। जिसमें हम अपनी कुंठा को सच मान कर स्वीकार कर लेते हैं । जब भी हम किसी घटना का विरोध करते हैं या किसी व्यक्ति का विरोध करते हैं तो एक नया गुट उस के समर्थन में खड़ा हो जाता है। कर्नाटक का ही उदाहरण लीजिए। कई धाराएं चल रही हैं। हम यह समझने के लिए तैयार नहीं है  कि इससे हमारे लोकतंत्र और संविधान को कितनी क्षति पहुंचेगी। अगर कभी कोई इस पर बात उठाता भी है तो उस की बोलती बंद कर दी जाती है। भविष्य में क्या होगा यह कोई सुनने को तैयार नहीं है। फिलहाल हमारी पार्टी हमारे नेता ही विजयी हैं।  यही ठीक है। हमारे अपने - अपने पूर्वाग्रह हैं।  हम नहीं जानते हम क्या जानते हैं और क्या नहीं जानते। फिर भी हम यह मानने को तैयार नहीं हम क्या नहीं जानते। अब कर्नाटक का ही उदाहरण लें। वहां जो कुछ भी हुआ वह भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए भविष्य में एक उदाहरण बन गया। शीर्ष अदालत के आदेश ने येदियुरप्पा को गवर्नर  द्वारा दिए गए समय को अमान्य कर  विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। इसे अब से एक ऐतिहासिक उदाहरण के रूप में याद किया जाएगा और उद्धृत किया जाएगा।
ऐसी परिस्थितियां बार-बार उत्पन्न होती हैं, पूरी तरह से। क्योंकि राज्यपाल को जो करना चाहिए वह हमारे संविधान में संहिताबद्ध नहीं है। यह अपने विवेकाधिकार के लिए छोड़ दिया गया है। वे विवेकाधीन प्रक्रियाएं उदाहरण पर आधारित हैं और यह खतरनाक है क्योंकि लोकतंत्र के हर झगड़े के लिए एक उदाहरण है। इस नाटक को दोहराये जाने से रोकने के लिए, नियमों को  मजबूत बनाया  जाना चाहिये। एक गवर्नर के विवेकानुसार नहीं छोड़ा जाना चाहिए,क्योंकि  आखिरकार वह राजनीतिक नियुक्ति है।
जब तक हम कानून द्वारा इन दिशानिर्देशों को निर्धारित नहीं करते हैं, हम चुनाव की भावना को दूर करने वाले बदसूरत राजनीति  के  गवाह बने रह सकते हैं। विख्यात दार्शनिक  हेबरमास ने आदर्श संवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। इसके तहत हर आदमी को बोलने और प्रश्न पूछने की आजादी है लेकिन इसमें सबसे बड़ी शर्त है कि बोलने और सुनने वाला इंसान किसी भी प्रकार के मनोवैज्ञानिक दबाव से मुक्त हो। ऐसा नहीं होता। हमारे संविधान ने हमें बोलने की आजादी दी है। लोकतंत्र में व्यवस्था पर सवाल उठाने की आजादी है। लेकिन ,हम कभी यह नहीं कहते कि नेताजी संविधान को फुटबॉल मत बनाइए क्योंकि उसे किसी विशेष पार्टी ने अंगीकार नहीं किया समस्त भारत की जनता ने उसे स्वीकार किया है।

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