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Wednesday, May 23, 2018

आकाश छूती तेल की कीमतें 

आकाश छूती तेल की कीमतें 

जिस तरह से कोई भी मोदी जी ने एक जुमला दिया था ​2014 के चुनाव प्रचार के दौरान कि  "अच्छे दिन " आने वाले हैं। इसका विलोम होगा या होता है कि "बुरे दिन " आने वाले हैं।  अच्चे दिन अचानक आते हैं और ना बुरे दि दोनों धीर- धीरे आते हैं। तो ... भाई बुरे दिन की शुरूआत हो चुकी है।  इसका सबसे ज्यादा असर  डीजल - पेट्रोल खरीदते समय दिखायी देता है।  2014 और 2018 के बीच  सस्ते कच्चे तेल के पुराने अच्छे  दिनों को नहीं भूल सकता। वे दिन थे जब दुनिया सस्ते तेल के लाभ का आनंद ले रही थी, लेकिन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अवसर का इस्तेमाल कियकिड़की के दिनों के लिए पैसे बचाने के नाम पर पेट्रोलियम उत्पादों पर भारी कर लगा दिया। तेल की बढ़ी कीमतों के नीचे  कुचल रहा देश क्या सरकार से यह पूछने की हिमाकत कर सकता है कि , सस्ते तेल से बचत और उच्च कराधान से हुई कमाई कहां गयी?  क्या सरकार कड़की के दिनों के लिये बचा कर रखी गयी उस राशि से कराहते देश की मदद कर सकती है?  जवाब चार वर्षों के विचित्र वित्तीय प्रबंधन की कथा में निहित है। आइए हम उस कथा को सुनते हैं -  

पहले साल यानी  2014 की दूसरी छमाही में तेल की कीमतों में गिरावट की शुरूआत तब हुई  जब 2008 में  कच्चा तेल 132 डॉलर प्रति बैरल की दर को छू कर इस अवधि में  46 डॉलर प्रति बैरल हो गया।  कच्चे तेल की कमी ने सरकार को ईंधन की कीमतों को विनियमित करने के लिए स्वच्छंदता प्रदान किया और तेल विपणन कंपनियों ने दैनिक आधार पर कच्चे तेल और  और अन्य लागतों के आधार पर कीमतें बदलनी शुरू कर दीं। इधर   लोग कच्चे तेल में गिरावट  के कारण सस्ते ईंधन की उम्मीद कर रहे थे, सरकार ने पेट्रोलियम में उत्पाद शुल्क 21.5 रुपये प्रति लीटर बढ़ा दिया और वित्त वर्ष 2014 तक डीजल में 17.3 रुपये प्रति लीटर और बढ़ाया।  इससे वित्त वर्ष 2014 में पेट्रोलियम उत्पादों से आय के जमा  में वृद्धि हुई और और उसका अनुपात  सकल घरेलू उत्पाद का 1.6 प्रतिशत हो गया, जो कि वित्त वर्ष 2014 में केवल 0.7 प्रतिशत था। इसके परिणामस्वरूप दशकों में तेल पर रिकॉर्ड टैक्स संग्रह हुआ। अब देखें कि इस कमाई का उपयोग कैसे किया जाता था-पेट्रोलियम उत्पादों पर उच्च उत्पाद शुल्क से हासिल  लाभ का एक बड़ा हिस्सा 14 वें वित्त आयोग की सिफारिशों को पूरा करने के लिये राज्यों में स्थानांतरित कर दिया गया। शेष धन का उपयोग सरकारी कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग का भुगतान करने के लिए  उपयोग किया गया। सस्ते कच्चे तेल के पुराने अच्छे  दिनों के दौरान अर्जित दो और लाभ हुये कि  थोक मुद्रास्फीति 5.2 से 1.8 प्रतिशत और खुदरा 9.4 से 4.5 प्रतिशत तक गिर गई थी। इसके अतिरिक्त, सस्ते आयात ने चालू खाता घाटे - विदेशी व्यापार घाटे सहित बाह्य संसाधनों के प्रवाह इत्यादि को सहनीय स्तर तक पहुंचा दिया। अर्थव्यवस्था पेट्रोल और अर्थव्यवस्था पीट्रोल - डीजल की बढ़ती कीमतों के आधार पर   ताजा मुद्रास्फीति का आकलन करती है। अब गैर-सब्सिडी वाले एलपीजी से होने वाली आय जल्द ही इस में शामिल हो जाएगी।यदि वर्तमान मूल्य निर्धारण फारमूले जारी रहे तो मुद्रास्फीति में वृद्धि होगी।  यही नहीं चालू खाता घाटा भली  बढ़ने की संभावना है। इसके अलावा  रुपये में गिरावट आई है।

अर्थव्यवस्था को तेल उबाल से बचाने के लिए सरकार को राजकोषीय घाटे के मोर्चे पर जोखिम उठाना होगा।  वित्त मंत्रालय के पास उत्पाद शुल्क को कम करके ईंधन की कीमतों को कम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। 65डालर प्रति बैरेल पर कच्चे तेल की कीमत को  मानते हुए, उत्पाद शुल्क में 2 रुपये प्रति  लीटर की कमी से राजकोषीय घाटे में बजट अनुमानों से 10-12 बीपीएस की वृद्धि हो सकती है। इसके अलावा, जीएसटी राजस्व में भी कमी से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।चूंकि तेल की कीमतें बढ़ रही हैं और राजस्व फिसल रहा है, जीएसटी के दायरे में डीजल-पेट्रोल की कीमतें लाने का विचार अब बेकार हो गया। 

पिछले चार वर्षो  में, सरकार ने सस्ते तेल पर भारी कर लगाया लेकिन बचत और कमाई का प्रबंधन करने के लिए एक व्यवहारिक तरकीब की जहमत नहीं उठायी। जब दुनिया सस्ते ईंधन से लाभान्वित हो रही थी, तो भारतीय खुशी से महंगा ईंधन खरीद रहे थे। अब देखना है कि सरकार भविष्य में हमारी कठिनाइयों को कम करने के लिए क्या करती है? 

इन आंकड़ों को जानकर पता चलेगा कि पिछले चार वर्षों में तेल अर्थव्यवस्था के प्रबंधन का पैटर्न प्रभावी रूप से राजकोषीय कुप्रबंधन की कहानी है। पिछले चार वर्षों की राजकोषीय कौशल और कृति अनिवार्य रूप से सस्ते कच्चे तेल और भारी कराधान की आय पर आधारित थी। मिल्टन फ्रीडमैन की बात हमारे  निकटतम पेट्रोल स्टेशन पर सच हो रही है: "यदि आप  सरकार को  सहारा रेगिस्तान सौंप देते हैं, तो पांच साल में रेत की कमी हो जायेगी।"

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